Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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__ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका हाथ नहीं है। ऋग्वेदके संकलयिता ऋषि इन अरण्यवासी ऋषियोंसे सर्वथा भिन्न थे। वे अरण्य ( वन ) में नहीं रहते थे। किन्तु नगरों और गावोंमें रहते थे। और इस लिये अरण्यवासी ऋषियोंकी तरह वे संसारसे उदासीन नहीं थे। वेद-मन्त्रोंके दृष्टा होनेसे उन्हें ऋषि कहा जाता था। ब्राह्मण सभ्यताके निर्माणमें उन्हींका हाथ था-अरण्यवासी ऋषियोंका हाथ नहीं था।
इसी तरह वैदिक देवता भी अरण्यवासी नहीं थे। वे सवारियों पर बैठते थे जिन्हें घाड़े खींचते थे। हां, अवैदिक देवता अवश्य अरण्यवासी थे, जो मूलतः द्रविड़ थे, किन्तु पीछेसे हिन्दू देवताओंमें भी सम्मिलित कर लिये गये।
हम पूर्वमें लिख आये हैं कि वैदिक सभ्यता क्रियाकाण्डी सभ्यता थी। यज्ञ उसका प्रधानकर्म था. और यज्ञ यज्ञकर्ताके द्वारा निर्मित गृह मण्डपोंमें हुआ करते थे। ये यज्ञ दार्शनिक विचारों के स्थान नहीं थे। यज्ञोंमें मंत्र पाठ, आहुति और दक्षिणा का ही साम्राज्य था । इसी कारणसे वे और उनके व्याख्या ग्रन्थ ब्राह्मणोंमें अरण्योंकी ध्वनि सुनाई नहीं पड़ती। जब यज्ञोंकी वेध्वनिमें मन्दता आती है तो अरण्यकोंसे अरण्योंकी ध्वनि सुनाई देने लगती है। या यह भी कह सकते हैं कि अरण्यकी ध्वनि सुनाई पड़नेके वादसे वेद ध्वनि मन्द और मन्दतर होती जाती है।
ऋग्वेद सिन्धुघाटीकी रचना है जव कि आरण्यक और प्राचीन उपनिषद गंगाघाटीमें रचे गये। अतः गंगाकी घाटी में अवश्य ही ऐसे अरण्य थे जहां संसारसे विरक्त ऋषि लोग आत्मविद्याकी आराधना किया करते थे।
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