Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण दोनों तथ्य मूलतः अवैदिक हैं। और इन दोनोंका दर्शनशास्त्रकी अभ्युन्नति पर बड़ा प्रभाव है (हि. रि० ई० वे०, पृ० ३३)।
डा० भण्डारकरने लिखा है
'भारत सदासे विदेशियोंके आक्रमणके लिये मुक्त रहा है और उनके भारतमें वस जानेसे यहां जातियोंका सम्मिश्रण होता आया है। इन जातियोंके अपने देवता होते थे। आर्योंके हाथमें भारतका अधिकार आनेसे पूर्व उनमेंसे कुछ जातियां लिंग द्वारा अपने देवताओंकी उपासना करती थीं। और लिंग पूजाका इतना अवश्य ही चलन रहा होगा कि उसे आर्योने स्वीकार कर लिया और अपने वैदिक देवता इंद्रके साथ उसका एकीकरण कर दिया। अन्य जातियां अन्य देवोंको पूजती थीं उन्हें भी आर्योने अपने देवताओंमें सम्मिलित कर लिया। उनकी प्रशंसामें पुराण रचे गये। जैन और बौद्ध धर्मकी स्थापना उन मनुष्योंने की थी जो परमात्मा माने जाते थे। अतः उनके स्मारकांकी पूजा तथा उनकी मूर्तियोंका आदर करनेकी इच्छा होना स्वाभाविक है। यह पूजा प्रचलित हो गई और समस्त भारतमें फैल गई। अतः राम, कृष्ण, नारायण, लक्ष्मी
और शिव पार्वतीकी मूर्तियां तैयारकी गई और पूजाके लिये सार्वजनिक स्थानोंमें स्थापित की गईं। ( क० व. भां०, जि० १, पृ०४११)। ___ इसी तरह बनोंका भारतीय विचारों के विकासमें महत्त्वपूर्ण स्थान है।
अरण्यवासी ऋषियोंके आश्रम दार्शनिक विचारोंके केन्द्र थे। किन्तु उनकी चर्चा उपनिषद्कालमें ही श्रवण गोचर होती है। उपनिषद्से पूर्व रचे गये वेदोंमें उन अरण्यवासियोंका कोई
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