Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण मूल कारण क्या है ? दूसरी, आत्माका सत्य स्वरूप क्या है ?
आत्म स्वरूपकी उत्कृष्ट जिज्ञासा तथा उसको शान्त करनेके लिये आत्म स्वरूपका वर्णन अनेक उपाख्यानोंके द्वारा प्रदर्शित किये गये है। यहाँ उनमेंसे दो एक उपाख्यान दिये जाते हैं, उन उपाख्यानोंसे उक्त तथ्य पर प्रकाश पड़नेके साथ ही साथ तत्कालीन स्थितिका भी दिग्दर्शन होता है। . कठोपनिषदमें एक उपाख्यान इस प्रकार है---उद्दालक ऋषि ने फलकी कामनासे विश्वजित् नामका एक यज्ञ किया। इस यज्ञमें सर्वस्वदान करना पड़ता है। अतएव उद्दालक ने भी अपना सारा धन ऋत्विजोंको दक्षिणामें दे दिया। उद्दालकके नचिकेता नामका एक पुत्र था। जब दक्षिणामें देनेके लिये गौएँ लाई गई तो बालक नचिकेता ने उन्हें देखा। गौओंकी दयनीय दशा देखकर उसने मनमें सोचा, पिता जी, ये कैसी गौएँ दक्षिणामें दे रहे हैं ! अब न तो इनमें झुककर जल पीनेकी ही शक्ति रह गई है, न इनके मुख में घास चबानेके लिये दाँत हैं, न इनके स्तनोंमें तनिक सा भी दूध है, और न इनमें गर्भधारण करनेकी शक्ति है। भला, इन गौओंसे ब्राह्मणोंको क्या लाभ होगा। और पिता जी इस दानसे क्या सुख पायेंगे ! इनके सर्वस्वमें तो मैं भी हूं। मुझको तो इन्होंने दानमें दिया नहीं, पर मैं इनका पुत्र हूं अतएव मुझे इनको अनिष्टसे बचाना चाहिये। यह सोचकर वह अपने पितासे बोला-तात ! आप मुझे किसको देते हैं ? उत्तर न मिलने पर उसने वही बात दुबारा और तिबारा कही। तब पिता ने क्रोधमें आकर कहा तुझे मैं मृत्युको देता हूँ।
यह सुनकर नचिकेता यमराजके पास चला गया। वहाँ पहुँचने पर उसे ज्ञात हुआ कि यमराज कहीं बाहर गये हैं अतः
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