Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
७१ क्षेत्रमें हुई है और केवल इसीलिये उन्हें ब्राह्मणोंका कह सकते हैं। किन्तु इसका यह मतलब कदापि नहीं लेना चाहिये कि उपनिषदोंके सब विचार अथवा सबसे अधिक सारभूत विचार प्रथमवार ब्राह्मण क्षेत्रमें उद्भूत हुए थे। आपस्तम्वीय धर्मसूत्र ( २, २-४-२५ ) तकमें ब्राह्मणके लिये अनुज्ञा है कि आपत्तिकालमें वह क्षत्रिय अथवा वैश्य गुरुसे भी पढ़ सकता है। (हि. इं. लि. (विन्ट०) जि० १, पृ. २३२ की टिप्पणी में)।
इस प्रकार क्षत्रिय वर्ग दार्शनिक चर्चाओंमें खूब रस लेते थे। वे ज्ञानके मात्र रक्षणकर्ता ही नहीं थे किन्तु स्वयं ज्ञानी थे और ब्राह्मण तक उनके शिष्य थे। ( वै० ए० पृ० ४३०)
डा. दास गुप्ता ने और भी (हि. इं० फि०, जि० १, पृ० ३१) लिखा है-'यहाँ यह निर्देश करना अनुचित न होगा कि उपनिषदोंमें बारंबार आनेवाले संवादोंसे, जिनमें कहा गया है कि उच्च ज्ञानकी प्राप्तिके लिये ब्राह्मण क्षत्रियोंके पास जाते थे, तथा ब्राह्मण ग्रन्थोंके साधारण सिद्धान्तोंके साथ उपनिषदोंकी शिक्षाका मेल न होनेसे और पाली ग्रन्थोंमें वर्णित जनसाधारणमें दार्शनिक सिद्धान्तोंके अस्तित्वकी सूचनासे यह अनुमान करना शक्य है कि साधारणतया क्षत्रियोंमें गम्भीर दार्शनिक अन्वेषण की प्रवृत्ति थी, जिसने उपनिषदोंके सिद्धान्तोंके निर्माणमें प्रमुख प्रभाव डाला। अतः यह संभव है कि यद्यपि उपनिषद ब्राह्मणोंके साथ सम्बद्ध हैं किन्तु उनकी उपज अकेले ब्राह्मण सिद्धान्तोंकी उन्नतिका परिणाम नहीं है, अ-ब्राह्मण विचारोंने अवश्य ही या तो उपनिषद सिद्धान्तोंका प्रारम्भ किया है अथवा उनकी उपज
और निर्माणमें फलित सहायता प्रदान की है, यद्यपि ब्राह्मणों के हाथोंसे ही वे शिखर पर पहुंचे हैं।'
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