Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका पास गये। राजाने उनका उपनयन न करके ही उन्हें आत्मविद्याका उपदेश दिया। ___ इस संवादका वर्णन शत० ब्रा० ( १०-६-१) में भी पाया जाता है। इस तरहके संवादोंसे यह स्पष्ट है कि जब ब्राह्मणवर्ग अपने यज्ञोंके कर्मकाण्डमें उलझा हुआ था, दूसरे क्षेत्र उस गम्भीर आध्यात्मिक तत्त्वज्ञानमें संलग्न थे, जिसका वर्णन उपनिषदों में है। ___ इस दूसरे क्षेत्रसे ही, जो कि मूलतः पुरोहित वर्गसे सम्बद्ध नहीं था, विचरणशील परिब्राजक, श्रमण आदि सन्यास मार्ग अग्रसर हुए। ये लोग सांसारिक सुखोंके प्रति ही उदासीन नहीं थे कि तु यज्ञों और वैदिक क्रियाकाण्डसे भी दूर थे।
किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि ब्राह्मणोंने दार्शनिक विचारोंमें कोई भाग नहीं लिया। क्योंकि क्षत्रिय आदि उच्च वर्णके लोग ब्राह्मणों के पास पढ़ते थे अतः उनमें परस्पर विचारों का आदान-प्तदान अवश्य होता था। साथ ही ब्राह्मणोंमें एक अपनी कट्टरता तथा ब्राह्मणत्वको सुरक्षित रखते हुए विरोधी बिचारोंको भी अपने अनकूल बना लेनेकी एक अपूर्व चतुराई है और उसी चतुराईके कारण वेदविरोधी अध्यात्मविद्याको उन्होंने इस खूबीसे अपनाया है कि मानों उपनिषदोंका तत्त्वज्ञान उन्हींकी देन हैं।
डा० दास गुप्ताने अपने भारतीय दर्शनके इतिहास (जि० १, पृ. ३३ ) में लिखा है कि आम तौरसे क्षत्रियोंमें दार्शनिक अन्वेषणकी उत्सुकता वर्तमान थी और उपनिषदोंके सिद्धान्तोंके निर्माणमें अवश्य ही उनका मुख्य प्रभाव रहा है।
तथ्य यह है कि प्राचीन उपनिषदोंकी साहित्यिक रचना ब्राह्मण
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