Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
६३
प्रश्नोपनिषद् में महात्मा पिप्पलादसे भारद्वाज सुकेशा कहते -भगवन् ! एक बार कोसल देशका राजकुमार हिरण्यनाभ मेरे पास आया और उसने मुझसे पूछा- क्या तुम सोलह कलाओं वाले पुरुषके विषय में जानते हो ? मैंने स्पष्ट कह दियामैं नहीं जानता TE वह रथपर बैठकर चला गया। अब मैं उसी तत्त्वको जानना चाहता हूँ । पुरुष
छा० उप०, अ० ७ में नारद जीने सनत्कुमारके पास जाकर कहा - 'भगवन् ! मुझे उपदेश दीजिये ।' सनत्कुमारने कहा- तुम जो कुछ जानते हो उसे बतलाओ, तब मैं तुम्हें आगे बतलाऊँगा ।
नारदने कहा - भगवन्! मैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और चौथा अथर्ववेद जानता हूँ । इनके सिवा इतिहास पुराणरूप पांचवा वेद, व्याकरण, श्राद्धकल्प, गणित, देवविद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, विद्यादि सब मैं जानता हूं । सो मैं भगवन् मंत्रविद् तो हूं किन्तु आत्मवित् नहीं हूं। मैंने सुना है कि आत्मवेत्ता शोकको पारकर लेता है, परन्तु भगवन् मैं शोक करता हूं मुझे शोकसे पार कर दीजिये ।
तब सनत्कुमारने उनसे कहा- तुम जो कुछ जानते हो वह नाम है तुम नामकी उपासना करो। तब नारदने पूछा- क्या नामसे भी अधिक कुछ है ? हां नामसे भी अधिक है ? तो भगवन् मुझे वही बतलाइये । इस प्रकार सनत्कुमार जो कुछ बतलाते गये नारद उससे भी अधिक, उससे अधिक की जिज्ञासा करता गया । अन्तमें सनत्कुमारने कहा— आत्मदर्शनसे इन सबकी प्राप्ति हो जाती है । अत्मा ही सत्य है ।
छा० उप० अ०८ में इन्द्र और विरोचनका वृत्तान्त भी इस विषय में अच्छा प्रकाश डालता है, अतः उसे भी यहां दिया जाता है ।
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