Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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हम भूखे और अन्न लाइये "
जै०
० सा० इ० पूर्व पीठिका
प्यासे हैं । अतः हमारे लिये अन्न लाइये "अन्न लाइये । "
यज्ञोंके विरुद्ध सबसे प्रबल आक्रमण तो मुण्डकोपनिषद् ( १-२-७) में है ।
लवा ह्येते दृढा यज्ञरूपा श्रष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म । एतच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढा जरामृत्यं ते पुनरेवापि यान्ति ॥ ७ ॥
"निश्चय ही ये यज्ञरूप अट्ठारह नौकाएँ अस्थिर हैं, जिनमें नीची श्रेणिका कर्म बताया गया है। जो मूर्ख यही श्रेयस्कर है ऐसा मानकर उनकी प्रशंसा करते हैं वे बारंबार जरा-मरणको प्राप्त होते हैं" ।
इससे आगे पद्यमें ऐसे लोगोंको 'अन्धेन नीयमाना यथान्धाः' अन्धेके द्वारा ले जानेवाले अन्धोंके तुल्य बतलाया है ।
मुण्ड० उ० ( १-१-४१५ ) में विद्या अथवा ज्ञानके दो भेद बतलाये हैं एक परा और एक अपरा । तथा वेदोंसे प्राप्त ज्ञानको अपरा अर्थात् नीच विद्या कहा है। नारद कहता है- 'मैं ऋग्वेद सामवेद और यजुर्वेदको जानता हूँ किन्तु इससे मैं केवल मंत्रों और शास्त्रों को जानता हूं, अपनेको नहीं जानता ।
कठ उप० ( २–४ ) में यमराज नचिकेतासे कहते हैं - 'जो विद्या और विद्या नामसे विख्यात हैं, ये दोनों परस्पर अत्यन्त विपरीत और विभिन्न फल देनेवाली हैं। अविद्या के भीतर स्थित होकर अपने आपको विद्वान् और बुद्धिमान् माननेबाले मूर्ख लोग नाना योनियोंमें भटकते हुए ठीक वैसे ही ठोकरे खाते हैं जैसे अन्धे द्वारा ले जाये जानेवाले अन्धे ।'
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कतिपय उपनिषदोंमें यज्ञोंका विरोध यद्यपि इतना खुलकर नहीं किया गया है तथापि यज्ञोंके प्रचलित रूपकी ओर उपेक्षा
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