Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका है जो अस्थायी है, और वहांसे उसे अवश्य ही इस पृथ्वी पर लौटकर पुनः जन्म-मरणके चक्रमें घूमना होगा। ___ उत्तरकालीन कुछ उपनिषदोंके अवलोकनसे ऐसा भी प्रतीत होता है कि उपनिषदोंमें भी यज्ञका स्थान स्थिर करनेकी एक भावना काम करती रही है। उदाहरणके लिये श्वेताश्वतर उपनिषदको उपस्थित किया जा सकता है, उसमें ( २, ६-७) अग्नि सोम आदि देवताओंकी प्राचीन प्रार्थनाके रूपकी तरफदारी की गई है और लिखा है कि जहाँ यज्ञ किया जाता है वहां एक दैवी प्रकाश पैदा होता है। किन्तु यहां भी उसका लक्ष स्वर्ग नहीं है, किन्तु ब्रह्म है। - उपनिषदोंमें सर्वत्र एक देवता व्याप्त है और वह है ब्रह्म। अन्य सब देवता उसीकी शक्तियां हैं । मैत्रायणीय उपनिषद (४, ५-६) में ब्रह्मा, रुद्र, विष्णु आदि देवताओंको अविनाशी ब्रह्मका प्रत्यक्ष रूप बतलाया है। केन उप० में उमा हैमवती इन्द्रसे कहती है कि देवताओंकी शक्ति और प्रभावका मूल स्रोत परम ब्रह्म है । इसमें बतलाया है कि ब्रह्मके सामने अग्नि आदि देवता कैसे हतप्रभ और अकर्मण्य बन जाते हैं।
कठ उपनिषदमें कहा है कि परम ब्रह्मके भयसे देवता लोग अपने अपने उत्तरदायित्वोंको वहन करते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थोंका सर्वोच्च देवता प्रजापति भी ब्रह्मका सेवक है। कौषीतकी उपनिषदमें प्रजापति और इन्द्रको ब्रह्मका द्वारा रक्षक बतलाया है। इस तरह उपनिषदोंमें ब्रह्मके समकक्ष कोई नहीं है. वैदिक देवता तो उसके
आज्ञाकारी मात्र हैं । वैदिक देवताओं और यज्ञोंके प्रति उपनिषदों के दृष्टिकोणका यह संक्षिप्त चित्रण वस्तुस्थिति पर प्रकाश डालने के लिये पर्याप्त है।
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