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लोभाणुं वेदेंतो जो खलु, उवसामओ व खवओ वा । सोसुहुमसंपरायो अहक्खाया ऊणओ किंचि ॥४॥
उवसंते खीणम्मि व,जो खलु कम्मम्मि मोहणिज्जम्मि |
छउमत्थो व जिणो वा, अहक्खाओ संजओ स खलु ॥५॥ २. वेद-दारंप. (१) सामाइयसंजए णं भंते ! किं सवेयए होज्जा, अवेयए
होज्जा? उ. गोयमा ! सवेयए वा होज्जा, अवेयए वा होज्जा। प. जइ सवेयए होज्जा, किं इत्थिवेयए होज्जा, पुरिसवेयए
होज्जा, पुरिसनपुंसगवेयए होज्जा? उ. गोयमा ! इत्थिवेयए वा होज्जा, पुरिसवेयए वा होज्जा,
पुरिस-नपुंसगवेयए वा होज्जा। प. जइ अवेयए होज्जा किं उवसंतवेयए होज्जा, खीणवेयए
होज्जा? उ. गोयमा ! उवसंतवेयए वा होज्जा, खीणवेयए वा होज्जा।
(२) एवं छेदोवट्ठावणियसंजए वि, प. (३) परिहारविसुद्धिसंजए णं भंते ! किं सवेयए होज्जा,
अवेयए होज्जा? उ. गोयमा ! सवेयए होज्जा, नो अवेयए होज्जा, प. जइ सवेयए होज्जा, किं इथिवेयए होज्जा, पुरिसवेयए
होज्जा, पुरिस-नपुंसगवेयए होज्जा? उ. गोयमा ! नो इत्थिवेयए होज्जा, पुरिसवेयए वा होज्जा,
पुरिसनपुंसगवेयए वा होज्जा।। प. (४) सुहुमसंपरायसंजए णं भंते ! किं सवेयए होज्जा,
अवेयए होज्जा? उ. गोयमा !नो सवेयए होज्जा,अवेयए होज्जा, प. जइ अवेयए होज्जा, किं उवसंतवेयए होज्जा, खीणवेयए
होज्जा? उ. गोयमा ! उवसंतवेयए वा होज्जा, खीणवेयए वा होज्जा।
द्रव्यानुयोग-(२) जो सूक्ष्म लोभ का वेदन करता हुआ (चारित्रमोहनीय कर्म का) उपशामक होता है अथवा क्षपक (क्षयकर्ता) होता है वह "सूक्ष्मसम्पराय संयत" कहलाता है, यह यथाख्यात संयत से
कुछ हीन होता है। ५. मोहनीय कर्म के उपशान्त या क्षीण हो जाने पर जो छद्मस्थ
या जिन होता है वह “यथाख्यात संयत" कहलाता है। २. वेद-द्वारप्र. (१) भन्ते ! सामायिक संयत क्या सवेदक होता है या अवेदक
होता है? उ. गौतम ! सवेदक भी होता है, अवेदक भी होता है। प्र. यदि सवेदक होता है तो क्या स्त्रीवेदक होता है, पुरुषवेदक
होता है या पुरुष-नपुंसकवेदक होता है? उ. गौतम ! स्त्रीवेदक भी होता है, पुरुषवेदक भी होता है और
पुरुष-नपुंसक वेदक भी होता है। प्र. यदि अवेदक होता है तो क्या उपशान्तवेदक होता है या
क्षीण-वेदक होता है? उ. गौतम ! उपशान्त वेदक भी होता है, क्षीण वेदक भी होता है।
(२) छेदोपस्थापनीय संयत का कथन भी इसी प्रकार है। प्र. (३) भन्ते ! परिहारविशुद्धिक संयत क्या सवेदक होता है या
अवेदक होता है? उ. गौतम ! सवेदक होता है, अवेदक नहीं होता है। प्र. यदि सवेदक होता है तो क्या स्त्री-वेदक होता है, पुरुषवेदक
होता है या पुरुष-नपुंसक वेदक होता है ? उ. गौतम ! स्त्रीवेदक नहीं होता है, पुरुषवेदक होता है,
पुरुष-नपुंसक वेदक होता है। प्र. (४) भन्ते ! सूक्ष्मसंपराय संयत क्या सवेदक होता है या
अवेदक होता है? उ. गौतम ! सवेदक नहीं होता है, अवेदक होता है। प्र. यदि अवेदक होता है तो क्या उपशान्त वेदक होता है या क्षीण
वेदक होता है? उ. गौतम ! उपशान्त वेदक भी होता है और क्षीण वेदक भी
होता है।
(५) यथाख्यात संयत का कथन भी इसी प्रकार है। ३. राग-द्वारप्र. भन्ते ! सामायिक संयत क्या सरागी होता है या वीतरागी
होता है? उ. गौतम ! सरागी होता है, वीतरागी नहीं होता है।
(२-४) इसी प्रकार सूक्ष्मसंपराय संयत पर्यन्त जानना चाहिए। प्र. (५) भन्ते ! यथाख्यात संयत क्या सरागी होता है या वीतरागी
होता है? उ. गौतम ! सरागी नहीं होता है, वीतरागी होता है। प्र. यदि वीतरागी होता है तो क्या उपशान्त कषाय वीतरागी होता
है या क्षीण कषाय वीतरागी होता है? उ. गौतम ! उपशान्त कषाय वीतरागी भी होता है और क्षीण
कषाय वीतरागी भी होता है।
होता है।
(५) एवं अहक्खायसंजए वि। ३. राग-दारंप्र. (१) सामाइयसंजए णं भंते ! किं सरागे होज्जा, वीयरागे
होज्जा? उ. गोयमा ! सरागे होज्जा, नो वीयरागे होज्जा।
(२-४) एवं जाव सुहुमसंपराय संजए। प. (५) अहक्खायसंजए णं भंते ! किं सरागे होज्जा,
वीयरागे होज्जा? उ. गोयमा ! नो सरागे होज्जा, वीयरागे होज्जा। प. जइ वीयरागे होज्जा, किं उवसंतकसायवीयरागे होज्जा,
खीणकसायवीयरागे होज्जा? उ. गोयमा ! उवसंतकसायवीयरागे वा होज्जा, खीणकसाय
वीयरागे वा होज्जा।