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वेदना अध्ययन
प. दं. १ नेरइया णं भंते! किं एवंभूयं वैयणं वेदेति अणेवभूव वेयण वेदेति ?
उ. गोयमा ! नेरइया णं एवंभूयं पिवेषणं वेदेति, अणेबंभूय पिवेयणं वेदेंति ।
प से केणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"नेरइयाणं एवंभूयं पिवेयणं वेदेति, अणेवंभूयं पिवेयणं वेदेंति ?"
उ. गोयमा ! जे णं नेरइया जहा कडा कम्मा तहा वेयणं वेदेति ते गं नेरइया एवंभूय वेयण वेदेति ।
"
जेनेरइया जहा कडा कम्मा णो तहा वेयणं वेदेंति, ते णं नेरइया अणेवंभूयं वेयणं वेदेति ।
से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं दुच्चइ
'नेरइया णं एवंभूयं पिवेयणं वेदेति, अणेवंभूयं पिवेयणं वेदेंति ।'
२- २४ एवं जाव वेमाणिया संसारमंडलं नेयव्वं ।
- विया. स. ५, उ. ५, सु. २-४
७. एगिंदिएसु वेदणाणुभव परूवणं
प. पुढविकाइए णं भंते ! अनंते समाणे केरिसिय वैयण पंचणुभवमाणे विहरह?
उ. गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे बलवं जाव निउणसिप्पोवगए एगं पुरिसं जुण्णं जराजज्जरियदेहं जाव दुब्बलं किलतं जमलपाणिणा मुद्धाणसि अभिहणिज्जा से णं गोयमा ! पुरिसे तेणं पुरिसेणं जमलपाणिणा मुद्धाणंसि अभिहए समाणे केरिसिये वैयण पच्चणुभवमाणे विहरड ? अणि समणाउसो!
तस्स णं गोयमा ! पुरिसस्स वेयणाहिंतो पुढविकाइए अनंते समाणे एतो अणिट्ठतरियं चैव जाव अमणामतरियं चैव वेयणं पच्चणुभवमाणे विहरइ । प आउकाइए णं भंते! संघट्टिए समाणे केरिसिय वेयणं पच्चणुभवमाणे विहरइ ?
उ. गोयमा ! जहा पुढविकाइए एवं चेव ।
एवं तेउ वाउ वणस्सइकाइए वि जाव विहरइ । -विया. स. १९, उ. ३, सु. ३३-३७
८. नेरइएसु दसविहवेयणा
नेरइया दसविहं वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरति, तंजा
१. सीयं २ उसिणं, ३. खु. ४. पिवास, ५. कंडु, ६. परज्झ,
"
७. जरं, ८. दाहं, ९. भयं, १०. सोगं । १
-विया. स. ७, उ. ८, सु. ७
९. नेरइएसु उसिण-सीय वेयणा परूवणं
प. उसिणवेयणिज्जेस णं भंते । गैरइएस णेरड्या केरिसय उणिवेयणं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ?
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प्र. दं. १. भंते ! क्या नैरयिक एवम्भूत वेदना वेदते हैं या अनेवम्भूत वेदना वेदते हैं?
उ. गौतम ! नैरयिक एवम्भूत वेदना भी वेदते हैं और अनेवम्भूत वेदना भी वेदते हैं।
प्र. भंते! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
'नैरयिक एवम्भूत वेदना भी वेदते हैं और अनेवम्भूत वेदना भी वेदते हैं?"
उ गौतम ! जो नैरयिक अपने किये हुए कर्मों के अनुसार वेदना वेदते है वे नैरयिक एवम्भूत वेदना वेदते हैं,
जो नैरयिक अपने किये हुए कर्मों के अनुसार वेदना नहीं वेदते हैं वे नैरयिक अनेवम्भूत वेदना वेदते हैं।
इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"नैरयिक एवम्भूत वेदना भी वेदते हैं और अनेवम्भूत वेदना भी वेदते हैं। "
दं. २-२४ वैमानिकों पयन्त समस्त संसारी जीवों के लिए भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
७. एकेन्द्रिय जीवों में वेदनानुभव का प्ररूपण
प्र. भंते! पृथ्वीकायिक जीव को आक्रांत करने (दवाने) पर वह कैसी वेदना (पीड़ा) का अनुभव करता है ?
उ. गौतम ! जैसे कोई तरुण बलिष्ठ यावत् शिल्प में निपुण पुरुष किसी वृद्धावस्था से जीर्ण जरा जर्जरित देह वाले या दुर्बल क्लान्त पुरुष के सिर पर मुष्टि से प्रहार करें तो गौतम ! वह पुरुष उस पुरुष के द्वारा दोनों हाथों से मस्तक पर ताडित किये जाने पर कैसी वेदना का अनुभव करता है ?
हे भंते! वह वृद्ध अनिष्ट वेदना का अनुभव करता है। इसी प्रकार हे गौतम! उस वृद्धपुरुष की वेदना की अपेक्षा पृथ्वीकायिक जीव आक्रान्त किये जाने पर अनिष्टतर यावत् अमनामतर पीड़ा का अनुभव करता है।
प्र. भंते! अप्कायिक जीव संघर्षण किये जाने पर कैसी वेदना का अनुभव करता है?
उ. गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों के समान कहना चाहिए।
इसी प्रकार तेजस्कायिक वायुकायिक और वनस्पतिकायिक भी यावत् पीड़ा का अनुभव करते हैं ऐसा कहना चाहिए। ८. नैरयिकों में दस प्रकार की वेदनाएँ
नैरयिक दस प्रकार की वेदना का अनुभव करते हैं, यथा१. शीत, २. उष्ण, ३. क्षुधा (भूख), ४. पिपासा (प्यास), ५. कंडु (खुजली), ६. पराधीनता, ७. ज्वर, ८. दाह (जलन), ९. भय, १०. शोक ।
९. नैरयिकों की उष्ण-शीत वेदना का प्ररूपण
प्र. भन्ते ! ( १ ) उष्णवेदना वाले नरकों में नारक किस प्रकार की उष्णवेदना का अनुभव करते हैं ?
१. ठाणं अ. १०, सु. ७५३ (दाह के स्थान पर व्याधि शब्द का प्रयोग है।) और ठाणं. अ. ४, उ. ४, सु. ३४२ में व्याधि के चार प्रकार बताये हैं, चउव्विहे वाही पण्णत्ते, तंजहा- १. वाइए, २. पित्तिए, ३. सिंभिए, ४. सण्णिवाडए ।