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नरकगति अध्ययन
इस अध्ययन में नरकगति एवं नैरयिकों से सम्बद्ध वर्णन उपलब्ध है। सात प्रकार की नरक पृथ्वियों, नरकावासों तथा शरीर, अवगाहना, संहनन, संस्थान, लेश्या, स्थिति आदि विभिन्न २५ द्वारों से नैरयिक जीवों के विषय में जानकारी करने के लिए जीवाजीवाभिगम सूत्र अथवा इस ग्रन्थ के अन्य अध्ययन द्रष्टव्य हैं। किन्तु इस अध्ययन में सूत्रकृताङ्ग एवं व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्रों में उपलब्ध नैरयिक विषयक वर्णन का भी उल्लेख है। संक्षेप में इस अध्ययन की विषय वस्तु नरक में जाने के कारणों, वहाँ प्राप्त दुःखद फलों, अनिष्ट यावत् अमनाम स्पर्शादि अनुभवों पर केन्द्रित है।
नरक में जाने के प्रायः चार कारण माने जाते हैं-महारम्भ, महापरिग्रह, पञ्चेन्द्रियवध एवं माँस भक्षण । किन्तु यहाँ सूत्रकृताङ्ग सूत्र के अनुसार इसके अग्राङ्कित कारण दिए गए हैं- जो जीव अपने विषय सुख के लिए त्रस और स्थावर प्राणियों की तीव्र परिणामों से हिंसा करता है, अनेक उपायों से प्राणियों का उपमर्दन करता है, अदत्त को ग्रहण करता है, श्रेयस्कर सीख को नहीं स्वीकारता है वह नरक में जाता है। इसी प्रकार जो जीव पाप करने में धृष्ट है, बहुत से प्राणियों का घात करता है, पाप कार्यों से निवृत्त नहीं है, वह अज्ञानी जीव अन्तकाल में घोर अन्धकार युक्त नरक में जाता है।
नैरयिक जीवों को शीत, उष्ण, भूख, प्यास, शस्त्रविकुर्वण आदि अनेक वेदनाएँ भोगनी पड़ती हैं। इनका वर्णन इस द्रव्यानुयोग के देवना अध्ययन में द्रष्टव्य है। वे पृथ्वी, अप्, तेजस्, वायु एवं वनस्पति का स्पर्श करते हैं तो वह भी उन्हें अनिष्ट, अकांत, अप्रिय, अमनोज्ञ एवं अमनाम अनुभव होता है। ऐसा अनुभव रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक सबमें होता है। नरक वस्तुतः दुःखदायक एवं विषम है। यहाँ पर पूर्वकृत दुष्कर्मों का दुःखद फल भोगा जाता है। नरकपाल एवं परमाधर्मी देव नैरयिकों को विविध प्रकार की यातनाएँ देते हैं। नैरयिक किस प्रकार का असह्य एवं हृदयद्रावक दुःख भोगते हैं इसका वर्णन प्रस्तुत अध्ययन में विस्तार से हुआ है। इसमें एक सदाजला नामक नदी का भी उल्लेख है जिसमें जल के साथ क्षार, मवाद एवं रक्त भी है। यह आग से पिघले हुए लोहे की भाँति अत्यन्त उष्ण है। नैरयिकों को काने वाले भूखे एवं ढीठ सियारों का भी इसमें उल्लेख हुआ है।
इसमें एक यह सत्य प्रकट हुआ है कि जो जीव जिस प्रकार के कर्म करता है उसको उनके अनुरूप फल भोगना होता है। यदि जीव ने एकान्त दुःख रूप नरक भव के योग्य कर्मों का बंध किया है तो उसे नरक का दुःख भोगना होता है। नैरयिक जीव सदैव भयग्रस्त, त्रसित, भूखे, उद्विग्न, उपद्रवग्रस्त एवं क्रूर परिणाम वाले होते हैं। वे सदैव परम अशुभ नरक भव का अनुभव करते रहते हैं।
वे पुद्गल परिणाम से लेकर वेदना लेश्या, नाम-गोत्र, भय, शोक, क्षुधा, पिपासा, व्याधि, उच्छ्वास, अनुताप, क्रोध, मान, माया, लोभ एवं आहारादि चार संज्ञाओं के परिणामों का अनिष्ट, अप्रिय, अमनोज्ञ एवं अमनाम रूप में अनुभव करते हैं। ये समस्त परिणाम २० प्रकार के माने गए हैं जिनका उल्लेख जीवाभिगम सूत्र में हुआ है।
नैरयिक जीव नरक में उत्पन्न होते ही मनुष्य लोक में आना चाहते हैं, किन्तु नरक में भोग्य कर्मों के क्षीण हुए बिना वहाँ से आ नहीं सकते। नरकावासों के परिपार्श्व में जो पृथ्वीकाधिक, अकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकाधिक जीव है ये भी महाकर्म, महाक्रिया, महा आश्रव एवं महावेदना वाले होते हैं।
चार-सौ पाँच सौ योजन पर्यन्त नरकलोक नैरयिक जीवों से ठसाठस भरा हुआ है। इस प्रकार नरक में अत्यन्त दुःख है। यही इस अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है।
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