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[ वुक्कंति अध्ययन
१४३५ सभी दण्डकों के जीव आत्मोपक्रम से भी उत्पन्न होते हैं, परोपक्रम से भी उत्पन्न होते हैं और निरुपक्रम से भी उत्पन्न होते हैं किन्तु उद्वर्तन में ऐसा नहीं है। नैरयिक एवं देव निरुपक्रम से उद्वर्तन करते हैं, आत्मोपक्रम एवं परोपक्रम से नहीं। पृथ्वीकायिक जीवों से लेकर मनुष्य पर्यन्त के दण्डकों में तीनों उपक्रमों से उद्वर्तन होता है। ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों का च्यवन होता है, उद्वर्तन नहीं। यह बात पहले कही जा चुकी है कि सभी जीय आत्मऋद्धि से उत्पन्न होते हैं तथा आत्मऋद्धि से ही उद्वर्तन करते हैं, अपने कर्म से ही उत्पन्न होते हैं तथा अपने कर्म से ही उद्वर्तन करते हैं। इसी प्रकार वे आत्मप्रयोग या आत्मव्यापार से उत्पन्न होते हैं तथा उद्वर्तन करते हैं। जो जीव जहाँ उत्पन्न होने योग्य है वह उस गतिनाम से योजित कर भव्यद्रव्य नैरयिक, भव्यद्रव्य देव, भव्यद्रव्य पृथ्वीकायिक, भव्यद्रव्य तिर्यञ्च, भव्यद्रव्य मनुष्य आदि कहा जाता है।
एक गति में एक साथ कितने जीव उत्पन्न होने के लिए प्रवेश करते हैं उसे आगम में कति संचित, अकतिसंचित और अवक्तव्यसंचित इन तीन प्रकारों में विभक्त किया गया है। जो एक साथ संख्यात प्रवेश करते हैं वे कतिसंचित हैं, जो असंख्यात प्रवेश करते हैं वे अकर्तिसंचित हैं तथा जो एक-एक करके प्रवेश करते हैं वे अवक्तव्यसंचित हैं। एकेन्द्रिय जीव एक साथ असंख्यात प्रवेश करते हैं इसलिए वे मात्र अकतिसंचित होते हैं जबकि शेष सभी जीव तीनों प्रकार के हैं वे कतिसंचित भी हैं, अकतिसंचित भी हैं और अवक्तव्य संचित भी हैं। सिद्ध सिद्धगति में एक-एक या संख्यात जाते हैं अतः वे कतिसंचित एवं अवक्तव्यसंचित होते हैं। ___जो जीव (उत्पन्न होने के लिए) एक समय में एक साथ छह की संख्या में प्रवेश करते हैं वे षट्समर्जित कहलाते हैं। जो एक साथ जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट पाँच की संख्या में प्रवेश करते हैं, वे नोषट्क समर्जित होते हैं। जो अनेक षट्क की संख्या में प्रवेश करते हैं वे अनेक षट्क समर्जित कहलाते हैं। षट्क, नोषट्क एवं अनेक षट्क समर्जित के पाँच विकल्प बनते हैं-१. षट्क समर्जित २. नोषट्क समर्जित ३. एकषट्क और नोषट्क समर्जित ४. अनेक षट्क समर्जित ५. अनेक षट्क समर्जित एवं नोषट्क समर्जित। पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों में चौथा एवं पांचवां विकल्प ही है शेष सब जीवों में पाँचों विकल्प पाए जाते हैं। इस अध्ययन में षट्क समर्जितादि से विशिष्ट दण्डकों का अल्प-बहुत्व भी निरूपित है। षट्क समर्जित की भांति बारह की संख्या में प्रवेश करने वाले जीव द्वादश समर्जित कहलाते हैं। जो जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट ग्यारह तक प्रवेश करते हैं वे नो द्वादश समर्जित कहलाते हैं। अनेक द्वादशों की संख्या में प्रवेश करने वाले अनेक द्वादश समर्जित कहलाते हैं। षट्क समर्जित की भांति इनके भी पांच विकल्प हैं। इनका भी अल्प-बहुत्व प्रस्तुत अध्ययन में द्रष्टव्य है। षट्क समर्जित एवं द्वादश समर्जित के समान चतुरशीति समर्जित का वर्णन भी मिलता है। जब एक साथ चौरासी जीव प्रवेश करते हैं तो वे चतुरशीति समर्जित कहलाते हैं, जो उत्कृष्ट ८३ तक प्रवेश करते हैं वे नो चतुरशीति समर्जित कहलाते हैं तथा अनेक चौरासियों की संख्या में प्रवेश करते हैं वे अनेक चतुरशीति समर्जित कहे जाते हैं। इनका अल्पबहुत्व भी अध्ययन-पाठ में द्रष्टव्य है।
रत्नप्रभा आदि छह पृथ्वियों में सम्यग्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं किन्तु सम्यगमिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न नहीं होते। उद्वर्तन भी सम्यग्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि नैरयिकों का ही होता है। सातवीं नरक में मात्र मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं और वे ही उद्वर्तन करते हैं। नरकगति सम्यगमिथ्यादृष्टि नैरयिकों से कदाचित् अविरहित है और कदाचित् विरहित भी होती है। रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों के नैरयिकों का यदि प्रत्येक समय में एक-एक को अपहरण किया जाय तो वे असंख्यात उत्सर्पिणियों, अवसर्पिणियों में अपहृत होंगे किन्तु उनका अपहरण नहीं हुआ है। वैमानिक देवों में प्रत्येक समय में एक का अपहरण किया जाय तो असंख्यात उत्सर्पिणियाँ एवं असर्पिणियाँ लगेंगी किन्तु उनका अपहरण हुआ नहीं है। ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों में से अपहरण किए जाने पर वे पल्योपम के असंख्यातवें भाग में अपहृत होंगे किन्तु उनका अपहरण होता नहीं है। नैरयिकों की भांति देवों में भी सम्यग्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं किन्तु पाँच अनुत्तर विमानों में मात्र सम्यग्दृष्टि देव उत्पन्न होते हैं।
व्युत्क्रान्ति अध्ययन में भव्यद्रव्य देव, नरदेव, धर्मदेव, देवाधिदेव और भावदेवों के उपपात और उद्वर्तन का भी वर्णन है। भव्यद्रव्य देव उद्वर्तन करके देवों में उत्पन्न होते हैं। नरदेव उद्वर्तन करके नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं। धर्मदेव वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं। देवाधिदेव सिद्ध होते हैं यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं। भावदेवों की उद्वर्तना असुरकुमारों की भांति है। असंयत भव्यद्रव्य देव, अविराधित संयमी यावत् श्रद्धा भ्रष्ट वेषधारी जीव यदि देवलोक में उत्पन्न हों तो कहाँ-कहाँ उत्पन्न होंगे इसका भी अध्ययन में निर्देश है। जो जीव आचार्य, उपाध्याय, कुल, गण और संघ के प्रत्यनीक होते हैं तथा उनका अवर्णवाद करते हैं, मिथ्यात्व के अभिनिवेश युक्त होते हैं, बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन करके भी पापालोचन नहीं करते हैं वे अकाल में काल करके किल्विषिक देव रूप में उत्पन्न होते हैं। कुछ किल्विषिक देव नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव के चार-पाँच भव करके संसार-मुक्त हो जाते हैं और कुछ संसार-कान्तार में परिभ्रमण करते रहते हैं। महर्द्धिक देव महाधुति, महाबल, महायश और महासुख वाले होते हैं।
पृथ्वीकाय, अपकाय एवं वायुकाय के जीव रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों में मारणांतिक समुद्घात से समवहत होकर सौधर्मकल्प आदि देवलोकों में पृथ्वीकायिक आदि रूप में उत्पन्न होते हैं तब दो विकल्प संभव हैं-(१) वे जीव पहले उत्पन्न होते हैं और बाद में पुद्गल ग्रहण करते हैं। (२) पहले वे पुद्गल ग्रहण करते हैं और पीछे उत्पन्न होते हैं।