Book Title: Dravyanuyoga Part 2
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 786
________________ वुक्कंति अध्ययन जाव अहवा एगे रयणप्पभाए, संखेज्जा वालुयप्पभाए, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा दो रयणप्पभाए, संखेज्जा सक्करप्पभाए, संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा। जाव अहवा दो रयणप्पभाए, संखेज्जा सक्करप्पभाए, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा तिण्णि रयणप्पभाए, संखेज्जा सक्करप्पभाए, संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा। एवं एएणं कमेणं एक्केको रयणप्पभाए संचारेयव्यो जाव अहवा संखेज्जा रयणप्पभाए, संखेज्जा सक्करप्पभाए, संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा, जाव अहवा संखेज्जा रयणप्पभाए, संखेज्जा सक्करप्पभाए, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, संखेज्जा पंकप्पभाए होज्जा, जाव अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा एगे रयणप्पभाए, दो वालुयप्पभाए, संखेज्जा पंकप्पभाए होज्जा। एवं एएणं कमेणं तियासंजोगो चउक्कसंजोगो जावसत्तसंजोगो य जहा दसहं तहेव भाणियव्यो। यावत् अथवा एक रलप्रभा में, संख्यात वालुकाप्रभा में और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं। अथवा दो रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में और संख्यात वालुकाप्रभा में उत्पन्न होते हैं। यावत् अथवा दो रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं। अथवा तीन रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में और संख्यात वालुकाप्रभा में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार इस क्रम से रलप्रभा में एक-एक नैरयिक का संचार करना चाहिए यावत् अथवा संख्यात रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में और संख्यात वालुकाप्रभा में उत्पन्न होते हैं। यावतू अथवा संख्यात रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं। अथवा एक रलप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और संख्यात पंकप्रभा में उत्पन्न होते हैं। यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में, दो वालुकाप्रभा में और संख्यात पंकप्रभा में उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार इसी क्रम से त्रिकसंयोगी, चतुष्कसंयोगी यावत् सप्तसंयोगी भंगों का कथन दस नैरयिक सम्बन्धी भंगों के समान करना चाहिए। सप्त संयोगी का अन्तिम भंग इस प्रकार हैअथवा संख्यात रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में यावत् संख्यात अधःसप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं। (३३३७) पच्छिमो आलावगो सत्तसंजोगस्सअहवा संखेज्जा रयणप्पभाए, संखेज्जा सक्करप्पभाए जाव संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा।(३३३७) -विया. स.९, उ. ३२,सु.२६ ९४. असंखेज्ज नेरइयाणं विवक्खाप. असंखेज्जा भंते ! नेरइया नेरइयप्पवेसणए णं किं रयणप्पभाए होज्जा जाव अहेसत्तमाए होज्जा? उ. गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा। अहवा एगे रयणप्पभाए, असंखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा, एवं दुयासंजोगो जाव सत्तसंजोगो य जहा संखिज्जाणं भणिओ तहा असंखेज्जाण विभाणियव्यो। ९४. असंख्यात नैरयिकों की विवक्षा सेप्र. भंते ! असंख्यात नैरयिक, नैरयिक प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रलप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं यावत् अधःसप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं? उ. गांगेय ! वे रत्नप्रभा में भी उत्पन्न होते हैं, यावत् अधः सप्तमपृथ्वी में भी उत्पन्न होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में और असंख्यात शर्कराप्रभा में उत्पन्न होते हैं। जिस प्रकार संख्यात नैरयिकों के द्विकसंयोगी से सप्तसंयोगी पर्यन्त भंग कहे गये हैं उसी प्रकार असंख्यात के भी कहना चाहिए। विशेष-यहाँ संख्यात के बदले “असंख्यात" यह पद कहना चाहिए। शेष सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् सप्तसंयोगी का अन्तिम आलापक यह है णवरं-असंखेज्जाओ अब्भहिओ भाणियब्वो, सेसं तं चेव जाव सत्तसंजोगस्स पच्छिमो आलावगो। }. एक संयोगी ७, द्विकसंयोगी २३१, त्रिकसंयोगी ७३५, चतुष्क संयोगी १०८५, पंचसंयोगी ८६१, षट्संयोगी ३५७ सप्तसंयोगी ६१ कुल मिलाकर ३३३७ भंग होते हैं।

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