Book Title: Dravyanuyoga Part 2
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 793
________________ १५३२ सओ असुरकुमारा उववज्जति, असओ असुरकुमारा उववज्जंति, एवं जावसओ वेमाणिया उववज्जंति, असओ वेमाणिया उववज्जति? दं.१-२४.सओ नेरइया उव्वदृति, असओ नेरइया उव्वट्टति? सओ असुरकुमारा उव्वट्टति, असओ असुरकुमारा उव्वटृति, एवं जाव सओ वेमाणिया चयंति, असओ वेमाणिया चयंति? उ. गंगेया !सओ नेरइया उववति , नो असओ नेरइया उववज्जति, सओ असुरकुमारा उववज्जति, नो असओ असुरकुमारा उववज्जति, एवं जाव सओ वेमाणिया उववज्जति, नो असओ वेमाणिया उववज्जति। सओ नेरइया उव्वटृति, नो असओ नेरइया उव्वति, सओ असुरकुमारा उव्वदृति, नो असओ असुरकुमारा उव्वदृति। एवं जावसओ वेमाणिया चयंति, नो असओ वेमाणिया चयंति। प. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ "सओ नेरइया उववज्जंति, नो असओ नेरइया उववज्जंति जाव सओ वेमाणिया चयंति, नो असओ वेमाणिया चयंति?" उ. से नूणं भे गंगेया ! पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए बुइए अणादीए, अणवदग्गे परित्ते परिवुडे हेट्ठा विच्छिण्णे, मज्झे संखित्ते, उप्पिं विसाले, अहे पलियंकसंठिए, मज्झे वरवइरविग्गहिए, उप्पिं उद्धमुइंगाकारसंठिए। तसिं च णं सासयंति लोगंसि अणादियंसि अणवदग्गंसि परित्तसि परिवुडंसि हेट्ठा विच्छिण्णंसि, मज्झे संखित्तंसि, उप्पिं विसालंसि, अहे पलियंकसंठियंसि, मज्झे वरवइरविग्गहियंसि, उप्पिं उद्धमुइंगाकारसंठियंसि, अणंता जीवघणा उप्पज्जित्ता-उप्पज्जित्ता निलीयंति, परित्ता जीवघणा उप्पज्जित्ता-उप्पज्जित्ता निलीयंति। से भूए उप्पण्णे विगए परिणए, अजीवेहिं लोक्कइ पलोक्कइ “जे लोक्कइ से लोए"। द्रव्यानुयोग-(२) भंते ! असुरकुमार देव सत् असुरकुमार देवों में उत्पन्न होते हैं या असत् असुरकुमार देवों में उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार यावत् सत् वैमानिकों में उत्पन्न होते हैं या असत् वैमानिकों में उत्पन्न होते हैं? दं. १-२४. सत् नैरयिकों में से उद्वर्तन करते हैं या असत् नैरयिकों में से उद्वर्तन करते हैं ? सत् असुरकुमारों में से उद्वर्तन करते हैं या असत् असुरकुमारों में से उद्वर्तन करते हैं इसी प्रकार यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं या असत् वैमानिकों में से च्यवते हैं ? उ. गांगेय ! नैरयिक जीव सत् नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु असत् नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होते हैं। सत् असुरकुमारों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु असत् असुरकुमारों में उत्पन्न नहीं होते हैं। इसी प्रकार यावत् सत् वैमानिकों में उत्पन्न होते हैं, असत् वैमानिकों में उत्पन्न नहीं होते हैं। (इसी प्रकार) सत् नैरयिकों में से उद्वर्तन करते हैं, असत् नैरयिकों में से उद्वर्तन नहीं करते हैं। सत् असुरकुमारों में से उद्वर्तन करते हैं, असत् असुरकुमारों में से उद्वर्तन नहीं करते हैं। इसी प्रकार यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं च्यवते हैं। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "नैरयिक सत् नैरयिकों में से उत्पन्न होते हैं, असत् नैरयिकों में से उत्पन्न नहीं होते हैं। यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं च्यवते हैं? उ. हे गांगेय ! पुरुषादानीय (पुरुषों में ग्राह्य), अर्हत् पार्श्व ने लोक को शाश्वत, अनादि, अनन्त (अविनाशी) परिमित, अलोक से परिवृत, नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर विशाल, नीचे पल्यंकाकार, बीच में उत्तम वज्राकार और ऊपर ऊर्ध्वमृदंगाकार कहा है। उसी शाश्वत, अनादि, अनन्त, परिमित, परिवृत, नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर विशाल, नीचे पल्यंकाकार, मध्य में उत्तमवज्राकार और ऊपर उर्ध्वमृदंगाकारसंस्थित लोक में अनन्त जीवघन उत्पन्न हो होकर नष्ट होते हैं और परित्त (नियत) असंख्य जीवधन भी उत्पन्न होकर विनष्ट होते हैं। से तेणटेणं गंगेया ! एवं वुच्चइ"सओ नेरइया उववज्जति, नो असओ नेरइया उववज्जति जाव सओ वेमाणिया चयंति, नो असओ वेमाणिया चयंति।" -विया. स.९, उ.३२, सु. ४९-५१ इसीलिए यह लोक, भूत, उत्पन्न, विगत और परिणत है। यह अजीवों से लोकित और अवलोकित होता है। जो लोकित-अवलोकित होता है उसी को लोक कहते हैं यह निश्चित है। इस कारण से गांगेय ! ऐसा कहा जाता है कि"नैरयिक सत् नैरयिकों में से उत्पन्न होते हैं असत् नैरयिकों में से उत्पन्न नहीं होते हैं यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं च्यवते हैं।"

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