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वुक्कंति अध्ययन उ. गोयमा ! ते णं मणुया कालमासे कालं किच्चा देवलोएसु
उववज्जति। -जीवा. पडि.३, सु. ६३० (तेरा.) ७१. महड्ढियदेवस्स नाग-मणि-रुक्खेसु उववाओ
तयणंतरभवाओ सिद्धत्त परूवणंप. देवे णं भंते ! महड्डीए महज्जुईए महब्बले महायसे
महेसक्खे अणंतरं चयं चइत्ता बिसरीरेसु नागेसु
उववज्जेज्जा? उ. हता, गोयमा ! उववज्जेज्जा। प. से णं भंते ! तत्थ अच्चिय-वंदिय-पूइय-सक्कारिय
सम्माणिए दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सन्निहियपाडिहेरे या वि भवेज्जा?
हो
उ. हंता, गोयमा ! भवेज्जा। प. से णं भंते ! तओहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता सिज्झेज्जा
जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा? उ. हंता, गोयमा ! सिज्झेज्जा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं
करेज्जा। प. देवेणं भंते ! महड्डीए जाव महेसक्खे अणंतर चयं चइत्ता
बिसरीरेसु मणीसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! एवं चेव जहा नागाणं।
प. देवेणं भंते ! महड्ढीए जाव महेसक्खे अणंतरं चयं चइत्ता
बिसरीरेसु रुक्खेसु उववज्जेज्जा? उ. हंता, गोयमा ! उववज्जेज्जा। प. से णं भंते ! तत्थ अच्चिय-वंदिय जाव सन्निहियपाडिहेरे
लाउल्लोइयमहिए या विभवेज्जा?
उ. गौतम ! वे मनुष्य काल मास में काल करके देवलोकों में उत्पन्न
होते हैं। ७१. महर्द्धिक देव की नाग, मणी, वृक्ष के रूप में उत्पत्ति और
तदनन्तर भवों से सिद्धत्व का प्ररूपणप्र. भन्ते ! महर्द्धिक, महाद्युति, महाबल, महायश और महासुख
वाला देव च्यवकर क्या द्विशरीरी (दो जन्म धारण करके सिद्ध
होने वाले) नागों (सर्पो या हाथियों) में उत्पन्न होता है?' उ. हाँ, गौतम ! (वह) उत्पन्न होता है। प्र. भन्ते ! वह वहाँ नाग के भव में अर्चित, वन्दित, पूजित,
सत्कारित, सम्मानित, प्रधान (दिव्य) सत्य (वचन सिद्ध), सत्यानुपातरूप (सफलवक्ता) या सन्निहित प्रातिहारिक भी होता है? उ. हाँ, गौतम ! होता है। प्र. भन्ते ! क्या वह वहाँ से अनन्तर च्यवकर मनुष्य भव में उत्पन्न
होकर सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? उ. हाँ, गौतम ! वह सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अन्त
करता है। प्र. भन्ते ! महर्द्धिक यावत् महासुखवाला देव अनन्तर च्यवकर
क्या द्विशरीरी मणियों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! जैसे नागों के विषय में कहा उसी प्रकार मणियों के
विषय में भी कहना चाहिए। प्र. भन्ते ! महर्द्धिक यावत् महासुखवाला देव अनन्तर च्यव कर
क्या द्विशरीरी वृक्षों में उत्पन्न होता है? उ. हाँ, गौतम ! उत्पन्न होता है। प्र. भन्ते ! वह वहाँ वृक्ष के भव में अर्चित वंदित यावत् सन्निहित
प्रातिहारिक होता है तथा उस वृक्ष को चबूतरा आदि बनाकर
पूजा भी जाता है? उ. हाँ, गौतम ! पूजा जाता है।
शेष समस्त कथन पूर्ववत् (मनुष्य भव धारण करके ) सर्व
दुःखों का अन्त करता है पर्यन्त कहना चाहिए। ७२. समवहत पृथ्वी अप्-वायुकायिक उत्पत्ति के पूर्व और पश्चात
पुद्गल ग्रहण का प्ररूपणप्र. भन्ते ! जो पृथ्वीकायिक जीव इस रत्नप्रभा पृथ्वी में मरण
समुद्घात से समवहत होकर सौधर्मकल्प में पृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य है तो भन्ते ! वह पहले उत्पन्न होकर पीछे पुद्गल ग्रहण करता है या पहले पुद्गल ग्रहण कर पीछे
उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! १. वह पहले उत्पन्न होता है और पीछे पुद्गल ग्रहण
करता है,
२. पहले वह पुद्गल ग्रहण करता है और पीछे उत्पन्न होता है। प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"वह पहले उत्पन्न होते हैं और पीछे पुद्गल ग्रहण करता है, अथवा पहले वह पुद्गल ग्रहण करता है और पीछे उत्पन्न होता है?"
उ. हंता, गोयमा ! भवेज्जा। सेसं तं चेव जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा।
-विया. स. १२, उ.८,सु.२-४ ७२. समोहयस्स पुढवि-आउ-वाउकाइयस्स उप्पत्तीए पुव्वं पच्छा वा
पुग्गलगहण परूवणंप. पुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए
समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! किं पुव्विं उववज्जित्ता पच्छा संपाउणेज्जा, पुट्विं वा संपाउणित्ता
पच्छा उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! १. पुव्विं वा उववज्जित्ता पच्छा संपाउणेज्जा,
२. पुव्विं वा संपाउणित्ता पच्छा उववज्जेज्जा। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"पुव्विं उववज्जित्ता पच्छा संपाउणेज्जा, पुव्विं वा संपाउणित्ता पच्छा उववज्जेज्जा?"