Book Title: Dravyanuyoga Part 2
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 761
________________ १५०० ५. विराहियसंजमासंजमाणं जहण्णेणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं जोइसिएसु, ६. असण्णीणं जहण्णेणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं वाणमंतरेसु, अवसेसा सव्वे जहण्णेणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं वोच्छामि, ७. तावसाणं जोइसिएसु, ८. कंदप्पियाणं सोहम्मे कप्पे, ९. चरग-परिव्वायगाणं बंभलोए कप्पे, १०. किदिवसियाणं लंतगे कप्पे, ११. तेरिच्छियाणं सहस्सारे कप्पे, १२. आजीवियाणं अच्चुए कप्पे, १३. आभिओगियाणं अच्चुए कप्पे, १४. सलिंगीणं दंसणवावन्नगाणं उवरिमगेवेज्जएसु।' -विया. स.१, उ.२, सु. १९ ६९. देवकिब्बिसिएसु उववायकारण परूवणंप. देवकिब्बिसिया णं भंते ! केसु कम्मादाणेसु देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति? उ. गोयमा ! जे इमे जीवा आयरियपडिणीया, उवज्झायपडिणीया, कुलपडिणीया, गणपडिणीया, संघपडिणीया, आयरिय-उवज्झायाणं अयसकरा, अवण्णकरा, अकित्तिकरा बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहिं य अप्पाणं च, परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवकिब्बिसिएसु देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति, तं जहा-१. तिपलिओवमट्ठिईएसु वा, २. तिसागरोवमट्ठिईएसु वा, ३. तेरससागरोवमट्ठिईएसु वा। प. देवकिब्बिसिया णं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिईक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छंति, कहिं उववज्जति? उ. गोयमा ! जाव चत्तारि पंच नेरइय-तिरिक्खजोणिय मणुस्स देवभवग्गहणाए संसारं अणुपरियट्टित्ता तओ पच्छा सिझंति बुज्झंति मुच्चंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति। अत्थेगइया अणाईयं अणवदग्गं दीहमद्ध चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टति। -विया. ९, उ.३३, सु.१०८-१०९ ७०. उत्तरकुरु मणुस्साणं उप्पाय परूवणंप. उत्तरकुरुए णं भन्ते ! मणुया कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छंति, कहिं उववज्जति? १. पण्ण.प.२०,सु.१४७० द्रव्यानुयोग-(२) ५. विराधित संयमासंयम वालों का जघन्य भवनवासियों में, उत्कृष्ट ज्योतिष्क देवों में, ६. असंज्ञी जीवों का जघन्य भवनवासियों में, उत्कृष्ट वाणव्यन्तर देवों में उत्पाद कहा गया है। शेष सबका उत्पाद जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट उत्पाद क्रमशः इस प्रकार है७. तापसों का ज्योतिष्कों में, ८. कान्दर्पिकों का सौधर्मकल्प में, ९. चरकपरिव्राजकों का ब्रह्मलोक कल्प में, १०. किल्विषिकों का लान्तक कल्प में, ११. तिर्यञ्चों का सहनारकल्प में, १२. आजीविकों का अच्युत कल्प में, १३. आभियोगिकों का अच्युतकल्प में, १४. श्रद्धाभ्रष्ट स्वलिंगी श्रमणों का ऊपर के ग्रैवेयकों में उत्पाद होता है। ६९. किल्विषिक देवों में उत्पत्ति के कारणों का प्ररूपणप्र. भंते ! किन कर्मों के आदान (ग्रहण) से किल्विषिक देव, किल्विषिक देव के रूप में उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! जो जीव आचार्य, उपाध्याय, कुल, गण और संघ के प्रत्यनीक होते हैं तथा आचार्य और उपाध्याय का अयश (अपयश) अवर्णवाद और अकीर्ति करने वाले हैं तथा बहुत से असद्भावों को प्रकट करने और मिथ्यात्व के अभिनिवेशों (कदाग्रहों) से स्वयं को दूसरों को और स्व-पर दोनों को भ्रान्त और दुर्बोध करने वाले, बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन करके उस अकार्य (पाप) स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना काल के समय काल करके किन्हीं किल्विषिक देवों में किल्विषिक देव रूप में उत्पन्न होते हैं। यथा-१. तीन पल्योपम की स्थिति वालों में, २. तीन सागरोपम की स्थिति वालों में अथवा ३. तेरह सागरोपम की स्थिति वालों में। प्र. भंते ! किल्वषिक देव उन देवलोकों से आयु क्षय, भव क्षय और स्थिति क्षय होने के बाद च्यवकर कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! कुछ किल्विषिक देव नैरयिक तिर्यञ्च मनुष्य और देव के चार-पाँच भव करके और इतना संसार परिभ्रमण करके तत्पश्चात् सिद्ध-बुद्ध मुक्त होते हैं यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं। कोई-कोई अनादि-अनन्त दीर्घमार्ग वाले चतुर्गति रूप संसार कान्तार (संसार रूपी अटवी) में परिभ्रमण करते हैं। ७०. उत्तरकुरु के मनुष्यों के उत्पात का प्ररूपणप्र. भन्ते ! उत्तरकुरु के मनुष्य काल मास में काल करके कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं?

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