Book Title: Dravyanuyoga Part 2
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 748
________________ वुक्कंति अध्ययन दं.१३,१६.आउकाइय-वणस्सइकाइयाणं एवं चेव। दं. १४, १५, १७-१९. तेउ-वाउ-बेइंदिय-तेइंदियचरिंदियाण य जे भविए तिरिक्खजोणिए वा, मणुस्से वा उववज्जित्तए से भवियदव्य तेउ-वाउ-बेइंदिय-तेइंदिय चउरिंदिया। दं. २०. पंचेंदिय-तिरिक्खजोणियाणं जे भविए नेरइए वा, तिरिक्खजोणिए वा, मणुस्से वा, देवे वा पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु, उववज्जित्तए से भवियदव्य पंचेंदिय तिरिक्ख जोणिया। दं.२१.एवं मणुस्साण वि। दं. २२-२४. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा नेरइया। -विया. स. १८, उ. ९, सु. २-९ ४६. चउवीसदंडएसु सिद्धेसुय कइसंचियाइ परूवणंप. दं. १. नेरइया णं भंते ! कइसंचिया, अकइसंचिया, अवत्तव्वगसंचिया? उ. गोयमा ! नेरइया कइसंचिया वि, अकइसंचिया वि, अवत्तव्वगसंचिया वि। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ 'नेरइया कइसंचिया विजाव अवत्तव्वगसंचिया वि? उ. गोयमा ! जे णं नेरइया संखेज्जएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं नेरइया कइसंचिया, जे णं नेरइया असंखेज्जएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया अकइसंचिया, जेणं नेरइया एक्कएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं नेरइया अवत्तव्वगसंचिया, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"नेरइया कइसंचिया वि जाव अवत्तव्यंगसंचिया वि" दं.२-११. एवं असुरकुमारा जाव थणियकुमारा। १४८७ ) दं. १३, १६. इसी प्रकार अकायिक और वनस्पतिकायिक के विषय में समझना चाहिए। दं. १४, १५, १७-१९. अग्निकाय, वायुकाय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय पर्याय में जो कोई तिर्यञ्च या मनुष्य उत्पन्न होने के योग्य हो, वह भव्य-द्रव्य-अग्नि वायु द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय भव्य द्रव्य कहलाता है। दं. २०.जो कोई नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य या देव अथवा पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने योग्य होता है, वह भव्य-द्रव्य पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक कहलाता है। दं. २१. इसी प्रकार मनुष्यों के लिए भी कहना चाहिए। दं.२२-२४. वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में नैरयिकों के समान समझना चाहिए। ४६. चौबीस दण्डक और सिद्धों में कतिसंचितादि का प्ररूपणप्र. दं.१.भन्ते ! क्या नैरयिक कतिसंचित है, अकतिसंचित है या अवक्तव्यसंचित है? उ. गौतम ! नैरयिक कतिसंचित भी है, अकतिसंचित भी है और अवक्तव्यसंचित भी है। प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "नैरयिक कतिसंचित भी है यावत् अवक्तव्यसंचित भी है? उ. गौतम ! जो नैरयिक (नरकगति में एक साथ) संख्यात प्रवेश करते (उत्पन्न होते हैं वे कतिसंचित हैं। जो नैरयिक (एक साथ) असंख्यात प्रवेश करते हैं वे अकतिसंचित हैं। जो नैरयिक एक-एक करके प्रवेश करते हैं वे अवक्तव्य संचित हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"नैरयिक कतिसंचित भी है यावत् अवक्तव्यसंचित भी है। दं.२-११. इसी प्रकार असुरकुमारों से स्तनितकुमारों पर्यन्त जानना चाहिए। प्र. दं. १२. भन्ते ! क्या पृथ्वीकायिक कतिसंचित है, ___अकतिसंचित हैं या अवक्तव्य संचित हैं? उ. गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव कतिसंचित और अवक्तव्यसंचित नहीं हैं किन्तु अकतिसंचित हैं। प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "पृथ्वीकायिक जीव कतिसंचित और अवक्तव्यसंचित नहीं है किन्तु अकतिसंचित हैं?" उ. गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव एक साथ असंख्यात प्रवेश करते (उत्पन्न होते) हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"पृथ्वीकायिक जीव अकतिसंचित है किन्तु वे कतिसंचित और अवक्तव्यसंचित नहीं है।" दं. १३-१६. इसी प्रकार वनस्पतिकायिक पर्यन्त जानना चाहिए। प. दं. १२. पुढविकाइयाणं भंते ! किं कइसंचिया __ अकइसंचिया अवत्तव्वगसंचिया? उ. गोयमा ! पुढविकाइया नो कइसंचिया, अकइसंचिया, नो अवत्तव्वगसंचिया। प. से केणठेणं भंते ! वुच्चइ "पुढविकाइया नो कइसंचिया, अकइसंचिया, नो अवत्तव्वगसंचिया? उ. गोयमा ! पुढविकाइया असंखेज्जएणं पवेसणएणं पविसंति। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"पुढविकाइया नो कइसंचिया, नो अकइसंचिया, अवत्तव्वगसंचिया। दं.१३-१६.एवं जाव वणस्सइकाइया।

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