Book Title: Dravyanuyoga Part 2
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj & Others
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 757
________________ १४९६ ५७. चउव्विह देवेसु सम्मद्दिविआईणं उववाय परूवणं प. चोसट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु असुरकुमारावासेसु किं सम्मदिट्ठी असुरकुमारा उववज्जति? मिच्छद्दिट्ठी असुरकुमारा उववज्जति, सम्ममिच्छद्दिट्ठी असुरकुमारा उववति? उ. गोयमा ! सम्मदिट्ठी वि असुरकुमारा उववजंति, मिच्छद्दिट्ठी वि असुरकुमारा उववज्जंति, नो सम्ममिच्छद्दिट्ठी असुरकुमारा उववज्जति। एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि तिण्णि गमा। एवंजाव गेवेज्जविमाणेसु। अणुत्तरविमाणेसु एवं चेव, णवरं-तिसु वि आलावएसु मिच्छद्दिट्ठी सम्मामिच्छद्दिट्ठी य न भण्णंति। सेसंतं चेव। -विया. स. १३, उ.२, सु. २४-२७ ५८. भवियदव्वदेवाणं उववायंप. भवियदव्वदेवा णं भंते !कओहिंतो उववज्जति ? किं नेरइएहिंतो उववज्जंति जाव देवेहितो उववज्जति? द्रव्यानुयोग-(२) ५७. चार प्रकार के देवों में सम्यग्दृष्टियों आदि की उत्पत्ति का प्ररूपणप्र. भन्ते ! चौंसठ लाख असुरकुमारावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले असुरकुमारावासों में क्या सम्यग्दृष्टि असुरकुमार उत्पन्न होते हैं ? मिथ्यादृष्टि असुरकुमार उत्पन्न होते हैं ? सम्यग्मिथ्यादृष्टि असुरकुमार उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! सम्यग्यदृष्टि भी असुरकुमार उत्पन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी असुरकुमार उत्पन्न होते हैं, किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि असुरकुमार उत्पन्न नहीं होते हैं। इसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले असुरकुमारावासों के लिए भी तीन-तीन आलापक कहने चाहिए। इसी प्रकार अवेयक विमानों पर्यन्त के लिए आलापक कहने चाहिए। अनुत्तरविमानों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष-अनुत्तरविमानों के तीनों आलापकों में मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि का कथन नहीं करना चाहिए। शेष सभी वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। ५८. भव्यद्रव्य देवों का उपपातप्र. भंते ! भव्यद्रव्यदेव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं यावत् देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों में से भी आकर उत्पन्न होते हैं। यहाँ व्युत्क्रान्ति पद में कहे अनुसार भेद कहने चाहिए। अनुत्तरोपपातिक पर्यन्त इन सभी की उत्पत्ति के विषय में कहना चाहिए। विशेष-असंख्यातवर्ष की आयु वाले, अकर्मभूमिक, अन्तरद्वीपज एवं सर्वार्थसिद्ध के जीवों को छोड़कर (भवनपति से) अपराजित देवों पर्यन्त से आकर उत्पन्न होते हैं। उ. गोयमा ! नेरइएहिंतो उववज्जति, तिरिय-मणुय-देवेहितो वि उववति। भेदो जहा वक्कंतीए। सव्वेसु उववायेयव्वा जाव अणुत्तरोववाइया ति। णवरं-असंखेज्जवासाउय-अकम्मभूमग-अंतरदीवगसव्वट्ठसिद्धवज्जं जाव अपराजियदेवेहिंतो वि उववज्जति। णो सव्वट्ठसिद्ध देवेहिंतो उववज्जति। -विया. स.१२, उ.९, सु.७ ५९. नरदेवाणं उववायंप. नरदेवाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति? किं नेरइएहिंतो उववज्जति जाव देवेहिंतो उववज्जंति? उ. गोयमा ! नेरइएहिंतो उववति , नोतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति, नो मणुस्सेहिंतो उववज्जति, देवेहितो वि उववज्जति। प. जइ नेरइएहिंतो उववज्जंति किं रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो उववजंति जाव अहेसत्तमापुढविनेरइएहितों उववज्जति? उ. गोयमा ! रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो उववति, नो सक्करप्पभापुढविनेरइएहितो जाव नो अहेसत्तमापुढविनेरइएहिंतो उववज्जति। ५९. नरदेवों का उपपातप्र. भंते ! नरदेव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से यावत् देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न नहीं होते हैं, मनुष्यों से भी आकर उत्पन्न नहीं होते हैं। देवों से आकर उत्पन्न होते हैं। प्र. यदि वे (नरदेव) नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वे रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में से आकर उत्पन्न होते हैं, किन्तु शर्कराप्रभा-पृथ्वी के नैरयिकों से यावत् अधःसप्तम पृथ्वी के नैरयिकों से आकर उत्पन्न नहीं होते हैं।

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