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वुक्कंति अध्ययन
१४३३ आदि के पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक सभी जीवों में से उत्पन्न होते हैं। मनुष्यों में कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों के पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक दोनों भेदों में से उत्पन्न होते हैं तथा सम्मूर्छिम मनुष्यों में सबमें से उत्पन्न होते हैं। भवनपति देवों में असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक सभी देवों में से, वाणव्यन्तर देवों में पिशाचों से लेकर गन्धों में से, ज्योतिष्क देवों में चन्द्रविमान के देवों से लेकर ताराविमान के देवों में से उत्पन्न होते हैं। वैमानिक देव दो प्रकार के होते हैं-कल्पोपन्नक और कल्पातीत। इनमें से कल्पोपन्नक देवों में से उत्पन्न होते हैं तथा कल्पोपन्नक देवों में से भी सौधर्म और ईशान कल्प के देवों में से ही उत्पन्न होते हैं। उल्लेखनीय यह है कि सूक्ष्म पृथ्वीक़ाय, सूक्ष्म अकाय एवं सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव देवों में से उत्पन्न नहीं होते हैं। वे मात्र तिर्यञ्च एवं मनुष्यों में से ही उत्पन्न होते हैं। (६) तेजस्काय एवं वायुकाय के जीव देवों में उत्पन्न नहीं होते। ये केवल तिर्यञ्च और मनुष्यों में से उत्पन्न होते हैं। शेष वर्णन पृथ्वीकायिक के समान है। (७) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति भी तेजस्काय एवं वायुकाय की भांति मनुष्य
और तिर्यञ्चों में से होती है। (८) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव चारों गतियों के जीवों में से उत्पन्न होते हैं। सातों पृथ्वियों के नैरयिकों, एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के तिर्यञ्चों, पर्याप्त-अपर्याप्त (कर्मभूमि) गर्भज एवं सम्मूच्छिम मनुष्यों में से तथा सहस्रार कल्प के वैमानिक देवों पर्यन्त देवों में से उत्पन्न होते हैं। सम्मूच्छिम जलचर आदि जीव तिर्यञ्च और मनुष्यों में से ही उत्पन्न होते हैं नारकी और देवों में से नहीं। (९) मनुष्य चारों गतियों के जीवों में से उत्पन्न होते हैं किन्तु नैरयिकों में छठी नरक तक के नैरयिकों में से उत्पन्न होते हैं सातवीं नरक के नैरयिकों में से नहीं। तिर्यञ्चों में तेजस्कायिक एवं वायुकायिकों में से उत्पन्न नहीं होते हैं। देवों में सर्वार्थसिद्ध पर्यन्त समस्त देवों में से मनुष्य उत्पन्न होते हैं। मनुष्य भी दो प्रकार के हैंसम्मूर्छिम और गर्भज। इनमें सम्मूर्छिम मनुष्य नैरयिक, देव एवं असंख्यात वर्ष आयु वाले मनुष्य एवं तिर्यञ्चों से भी उत्पन्न नहीं होते हैं। गर्भज मनुष्य का कथन सामान्य मनुष्य के समान है। (१०) वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवों का उपपात १० भवनपतियों के समान है। विशेषता यह है कि ज्योतिष्कों की उत्पत्ति सम्मूच्छिम-असंख्यात वर्षायुष्क-खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों तथा अन्तर्वीपज मनुष्यों को छोड़कर होती है। (११) वैमानिक देवों में दूसरे देवलोक तक के जीव पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों तथा मनुष्यों में से उत्पन्न होते हैं। सनत्कुमार से सहस्रार कल्प तक के वैमानिक देव असंख्यात वर्षायुष्क अकर्मभूमिकों को छोड़कर उत्पन्न होते हैं। आनत से अच्युत तक के देव केवल मनुष्यों में से उत्पन्न होते हैं। मनुष्यों में भी कर्मभूमिक गर्भज मनुष्यों में से उत्पन्न होते हैं। उनमें भी संख्यात वर्ष आयु वाले पर्याप्तकों में से उत्पन्न होते हैं। उनमें भी सम्यग्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि पर्याप्तकों में से उत्पन्न होते हैं, सम्यग्मिध्यादृष्टि में से नहीं। सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक तीन प्रकार के हैं-संयत, असंयत और संयतासंयत। ये इन तीनों प्रकार के सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक मनुष्यों में से उत्पन्न होते हैं। अच्युतकल्प के देवों के उपपात की भांति नवग्रैवेयकों का उपपात है किन्तु ये असंयत एवं संयतासंयत सम्यग्दृष्टियों में से उत्पन्न नहीं होते हैं। अनुत्तरोपपातिक देवों में संयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यात वर्षायुष्क कर्मभूमिज मनुष्य ही उत्पन्न हो सकते हैं अन्य कोई जीव नहीं। संयत सम्यग्दृष्टियों में भी अप्रमत्त संयतों में से ही अनुत्तरोपपातिक देव उत्पन्न होते हैं, प्रमत्तसंयतों में से नहीं। वे अप्रमत्तसंयत ऋद्धि प्राप्त या अऋद्धि प्राप्त हो सकते हैं। ___चारों गतियों में जीवों के उत्पन्न होने का क्रम निरन्तर भी रहता है तथा सान्तर (व्यवधानयुक्त) भी रहता है। चारों गतियाँ जघन्य एक समय से लेकर उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक उपपात (जन्म) से विरहित रहती हैं। सिद्धगति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह माह तक सिद्धि से रहित रहती है। चारों गतियाँ जघन्य एक समय एवं उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक उद्वर्तना (मरण) से विरहित कही गई हैं।
एक समय में जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात नैरयिक उत्पन्न होते हैं। असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के सभी १० भवनपति देव भी इसी प्रकार उत्पन्न होते हैं। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय एवं वायुकाय के जीव प्रति समय विना विरह के असंख्यात उत्पन्न होते हैं। वनस्पतिकाय के जीव प्रतिसमय स्वस्थान में बिना विरह के अनन्त तथा परस्थान में बिना विरह के असंख्यात उत्पन्न होते हैं। विकलेन्द्रिय, सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, सम्मूच्छिम मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा आठवें वैमानिक देवलोक तक के देवों की उत्पत्ति नैरयिकों के समान एक समय में जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात होती है। गर्भज मनुष्य, आनत, प्राणत, आरण
और अच्युत देवलोक के देव, नव ग्रैवेयक तथा पांच अनुत्तरोपपातिक देव एक समय में जघन्य एक, दो या तीन तथा उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। सिद्ध एक समय में जघन्य एक, दो या तीन तथा उत्कृष्ट एक सौ आठ सिद्ध होते हैं। उत्पत्ति के समान ही समस्त जीवों का एक समय में उद्वर्तन होता है। ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों के लिए उद्वर्तन के स्थान पर च्यवन शब्द प्रयुक्त होता है। सिद्धों का उद्वर्तन नहीं होता है।
नैरयिक से लेकर वैमानिक पर्यन्त सभी जीव अनन्तरोपपत्रक हैं, परम्परोपपन्नक हैं और अनन्तर परम्परानुपपन्नक भी हैं। जिन्हें उत्पन्न हुए प्रथम समय हुआ है वे अनन्तरोपपन्नक हैं, जिन्हें उत्पन्न हुए दो, तीन आदि समय व्यतीत हो गए हैं वे परम्परोपपन्नक हैं तथा जो जीव विग्रहगति में चल रहे हैं वे अनन्तर परम्परानुपपन्नक हैं। उत्पत्ति के समय सभी जीव सर्वभागों से सर्वभागों को आश्रित करके उत्पन्न होते हैं एवं उत्पन्न हुए है। इसी प्रकार वे सर्वभागों से सर्वभागों को आश्रित करके निकलते हैं अर्थात् उद्वर्तन करते हैं। ____चौबीस दण्डकों में सान्तर एवं निरन्तर उत्पत्ति का विचार करने पर ज्ञात होता है कि सभी एकेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति निरन्तर होती रहती है, उनकी उत्पत्ति में विरह या व्यवधान नहीं आता है अतः उनकी उत्पत्ति सान्तर नहीं होती है। शेष सभी जीवों की उत्पत्ति सान्तर भी होती है एवं निरन्तर भी होती है। यही नहीं सिद्ध भी सान्तर एवं निरन्तर दोनों प्रकार से होते रहते हैं। उत्पत्ति की भांति ही उद्वर्तन है। इसमें भी एकेन्द्रिय जीवों का उद्वर्तन निरन्तर होता रहता है जबकि शेष सभी दण्डकों में जीवों का उद्वर्तन सान्तर (विरहयुक्त) एवं निरन्तर होता है। सिद्धों का उद्वर्तन नहीं होता है।