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वुक्कंति (व्युत्क्रान्ति) अध्ययन
वुक्कंति का संस्कृत शब्द व्युत्क्रान्ति है जो व्युत्क्रमण अर्थात् पादविक्षेप या गमन का द्योतक है। अतः जीव एक स्थान से उद्वर्तन (मरण) करके दूसरे स्थान पर जन्म ग्रहण करता है उसे व्युत्क्रान्ति कहा जा सकता है। मनुस्मृति (६/६३) में उत्क्रमण शब्द का प्रयोग मृत्यु (शरीर से आत्मा के पलायन) के लिए हुआ है। यहाँ व्युत्क्रमण (वि + उत्क्रमण) या व्युत्क्रान्ति शब्द है जो ऐसी विशिष्ट मृत्यु के लिए प्रयुक्त है जिसके अनन्तर जीव जन्म ग्रहण करता है। इस प्रकार व्युक्रान्ति के अन्तर्गत उपपात, जन्म, उद्वर्तन, च्यवन, मरण का तो समावेश होता ही है किन्तु इससे सम्बद्ध विग्रहगति, सान्तर निरन्तर उपपात, सान्तर निरन्तर उद्वर्तन, उपपात विरह, उद्वर्तन विरह आदि अनेक तथ्यों का भी अन्तर्भाव हो जाता है। गति-आगति का चिन्तन भी इस प्रकार व्युत्क्रान्ति का ही अंग है। साधारण शब्दों में कहें तो मरण से लेकर उत्पन्न होने (जन्म ग्रहण करने) तक का समस्त क्रियाकलाप व्युत्क्रान्ति अध्ययन का क्षेत्र है।
जन्म-मरण के लिए आगमों में कुछ विशेष शब्दों का प्रयोग हुआ है। देवों एवं नैरयिकों के जन्म को उपपात (उववाए) कहा गया है क्योंकि इनका जन्म गर्भ से नहीं होता तथा सम्मूर्छिम भी नहीं होता है। नैरयिकों एवं भवनवासी देवों के मरण को उद्वर्तना (उव्वट्टणा) कहा गया है तथा ज्योतिषी एवं वैमानिक देवों के मरण को च्यवन कहा गया है। शेष जीवों के जन्म-मरण के लिए विशेष शब्द नहीं है। ___ गति-आगति का निरूपण व्याख्या प्रज्ञप्ति, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना और स्थानांग आदि में हुआ है। उद्वर्तन (मरण, च्यवन) करके जीवन के गमन करने को गति तथा आगमन को आगति कहते हैं। ये दोनों शब्द सापेक्ष हैं। गति है जाना और आगति है आना। थोकड़ों में भी गति-आगति का वर्णन है। संक्षेप में २४ दण्डकों में गति-आगति को इस प्रकार समझा जा सकता है-नैरयिक एवं देव गति के जीव दो गतियों से आते हैं तथा दो ही गतियों में जाते हैं। वे गतियाँ हैं-तिर्यञ्च और मनुष्य। पृथ्वी, अप एवं वनस्पतिकाय के जीव तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन तीन गतियों से आते हैं तथा तिर्यञ्च और मनुष्य इन दो गतियों में जाते हैं। तेजस्काय एवं वायुकाय के जीव तिर्यञ्च गति में ही जाते हैं। विकलेन्द्रिय जीव तिर्यञ्च एवं मनुष्य इन दो गतियों से आते हैं तथा इन्हीं दो गतियों में जाते हैं। सम्मूर्छिम तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय की आगति भी इन्हीं दो गतियों से है किन्तु इनकी गति चारों गतियों में संभव है। सम्मूच्छिम मनुष्य का आगमन एवं गमन दो ही गतियों में होता है-तिर्यञ्च एवं मनुष्य में। गर्भज तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय एवं गर्भज मनुष्य चारों गतियों से आते हैं तथा चारों गतियों में जाते हैं। विशेषता यह है कि मनुष्य सिद्धगति में भी जा सकते हैं।
स्थानांग-सूत्र में गति-आगति का निरूपण छह काया के आधार पर भी किया गया है तथा पृथ्वीकाय का जीव पृथ्वीकाय, अकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय इन छह स्थानों से आकर उत्पन्न हो सकता है तथा इन छह ही स्थानों में जा सकता है। इसी प्रकार अप्कायिक से त्रसकायिक पर्यन्त सभी जीवों की छह गति और छह आगति होती है। इन जीवों की नौ गति एवं नौ आगति भी कही गई है जिसके अनुसार नौ स्थान हैं-पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। अण्डज, पोतज आदि योनि शरीरों के आधार पर इन जीवों की आठ गति एवं आठ आगति भी कही गई है।
प्रज्ञापना-सूत्र में आगति का बहुत ही सूक्ष्म एवं सुन्दर विवेचन हुआ है। प्रश्नोत्तर शैली में हुए इन विवेचन के प्रमुख तथ्य हैं-(१) नैरयिक जीव तिर्यञ्च जीव, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय एवं मनुष्य से उत्पन्न होते हैं। तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय तीन प्रकार के हैं-जलचर, स्थलचर एवं खेचर। इनमें स्थलचर तिर्यञ्च तीन प्रकार के होते हैं-चतुष्पद, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प। ये जलचर आदि सभी तिर्यञ्च दो प्रकार के हैं-सम्मूच्छिम और गर्भज। ये दोनों भी दो-दो प्रकार के हैं-पर्याप्त एवं अपर्याप्त। इनमें कुछ संख्यात वर्षायुष्क होते हैं तथा कुछ असंख्यात वर्षायुष्का तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय के इन सब भेदों में से जो जीव संख्यातवर्षायुष्क एवं पर्याप्तक होते हैं वे ही नरक में जा सकते हैं। चाहे वे सम्मूच्छिम हो या गर्भज, जलचर हो, स्थलचर हो या खेचर इसका अन्तर नहीं पड़ता। (२) मनुष्यों में गर्भज मनुष्यों से नैरयिक जीव उत्पन्न होते हैं, सम्मूछिम मनुष्यों से नहीं। गर्भज मनुष्यों में भी कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों में से उत्पन्न होते हैं, अकर्मभूमिज एवं अन्तर्वीपज गर्भज मनुष्यों में से उत्पन्न नहीं होते। कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों में भी संख्यात वर्षायुष्क एवं पर्याप्तक मनुष्यों में से उत्पन्न होते हैं, असंख्यात-वर्षायुष्क एवं अपर्याप्तकों में से नहीं। (३) नैरयिकों के उपपात के विषय में जो सामान्य कथन है वह रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों के उपपात पर लागू होता है। शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिक सम्मूर्छिम तिर्यञ्च में से उत्पन्न नहीं होते। बालुका प्रभा पृथ्वी के नैरयिक भुजपरिसों में से भी उत्पन्न नहीं होते हैं। पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिक खेचरों में से भी उत्पन्न नहीं होते। इस प्रकार उत्तरोत्तर निषेध समझना चाहिए। धूमप्रभा के नैरयिकों की उत्पत्ति सम्मूर्छिम आदि के साथ चतुष्पदों से भी नहीं होती और तमस्तम पृथ्वी के नैरयिक मनुष्य-स्त्रियों से भी उत्पन्न नहीं होते हैं। इस प्रकार सातवीं नरक में जलचर एवं कर्मभूमिज मनुष्य (पुरुष व नपुंसक) ही उत्पन्न होते हैं। वे भी पर्याप्त एवं संख्यात वर्षायुष्का(४) देव भी तिर्यञ्च और मनुष्यों में से उत्पन्न होते हैं। असुरकुमार आदि १० भवनपति देवों का उपपात सामान्य नैरयिकों के उपपात की भाँति है किन्तु वैशिष्ट्य यह है कि ये असंख्यात वर्ष आयु वाले अकर्मभूमिज एवं अन्तर्वीपज मनुष्यों तथा असंख्यातवर्ष आयु वाले तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय से भी उत्पन्न होते हैं। (५) पृथ्वीकाय, अकाय एवं वनस्पति काय के जीव एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के तिर्यञ्चों, सम्मूर्छिम और गर्भज मनुष्यों तथा भवनवासी से लेकर वैमानिक तक के देवों में से उत्पन्न होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में वे पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक के सूक्ष्म एवं बादर, पर्याप्त एवं अपर्याप्त सभी जीवों में से उत्पन्न होते हैं। विकलेन्द्रियों में भी वें पर्याप्तकों एवं अपर्याप्तकों दोनों में से उत्पन्न होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में जलचर
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