________________
देव गति अध्ययन
जमलिय जुवलिय विणमिय पणमिय सुविभत्त पिंडिमंजरिवडेंसगधरे' सिरीए अईव-अईव उवसोभेमाणे-उवसोभेमाणे चिट्ठइ।
एवामेव तेसिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा जहन्नेणं दसवाससहस्सट्ठिईएहिं, उक्कोसेणं पलिओवमट्ठिईएहिं.बहूहिं वाणमंतरेहिं देवेहि य देवीहिं य आइण्णा विइकिण्णा उवत्थडा संथडा फुडा अवगाढगाढा सिरीए अईव उवसोभेमाणा चिट्ठति।
१४३१ ) अशोकवन, सप्तवर्ण वन, चम्पकवन, आम्रवन, तिलकवृक्षों के वन, लौकी की लताओं के वन, वटवृक्षों के वन,छत्रीघवन, अशनवृक्षों के वन, सन वृक्षों के वन, अलसी के वन, कुसुम्ब वृक्षों के वन, सरसव वन, बन्धुजीवक वृक्षों के वन शोभा से अतीव-अतीव उपशोभित होते हैं। इसी प्रकार वाणव्यन्तर देवों के देवलोक जघन्य दस हजार वर्ष की तथा उत्कृष्ट एक पल्योपम की स्थिति वाले एवं बहुत से वाणव्यन्तर देवों से और उनकी देवियों से आकीर्ण (व्याप्त) व्याकीर्ण (विशेष व्याप्त) एक दूसरे पर आच्छादित, परस्पर मिले हुए स्फुट प्रकाश वाले, अत्यन्त अवगाढ़ श्री शोभा से अतीव उपसुशोभित रहते हैं। हे गौतम ! उन वाणव्यन्तर देवों के (स्थान) देवलोक इसी प्रकार के कहे गये हैं।
एरिसगा णं गोयमा ! तेसिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा पण्णत्ता।
-विया. स. १, उ.१, सु. १२ (२)