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वुक्कंति अध्ययन उ. गोयमा ! एवं जहा पंकप्पभाए।
णवर-तिसु नाणेसु न उववज्जंति, न उव्वटंति। पन्नत्तएसु तहेव अत्थि। एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि।
१४८१ उ. गौतम ! जिस प्रकार पंकप्रभा के विषय में कहा उसी प्रकार
यहाँ भी कहना चाहिए। विशेष-तीन ज्ञान वाले उत्पन्न नहीं होते हैं और उद्वर्तन भी नहीं करते हैं। परन्तु सत्ता में तीनों ज्ञान वाले पाये जाते हैं। इसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकवासों के लिए भी कहना चाहिए। विशेष-यहाँ संख्यात के स्थान पर असंख्यात कहना चाहिए।
३६. भवनवासी देवों के उत्पाद आदि के ४९ प्रश्नों का समाधान
णवरं-असंखेज्जा भाणियव्वा।
-विया.सं.१३, उ.१,सु.१०-१८ ३६. भवणवासीणं देवाणं उववज्जणाइ एगूणपन्नासाणं पण्हाणं
समाहाणंप. केवइया णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णता? उ. गोयमा ! चोसद्धिं असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता।
प. ते णं भंते ! किं संखेज्जवित्थडा,असंखेज्जवित्थडा?
उ. गोयमा ! संखेज्जवित्थडा वि, असंखेज्जवित्थडा वि।
प. चोसट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु असुरकुमारावासेसु एगसमएणं केवइया असुरकुमारा उववज्जति? जाव केवइया तेउलेस्सा उववजंति?
केवइया कण्हपक्खिया उववज्जंति? उ. गोयमा ! एवं जहा रयणप्पभाए तहेव पुच्छा, तहेव
वागरणं।
णवरं-दोहिं वि वेदेहिं उववज्जति,
प्र. भंते ! असुरकुमार देवों के कितने लाख आवास कहे गए हैं ? उ. गौतम ! असुरकुमार देवों के चौंसठ लाख आवास कहे
गए हैं? प्र. भंते ! वे आवास संख्यात योजन विस्तार वाले हैं या असंख्यात
योजन विस्तार वाले हैं? उ. गौतम ! (वे) संख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं और
असंख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं। प्र. भंते ! असुरकुमारों के चौंसठ लाख आवासों में से संख्यात
योजन विस्तार वाले असुरकुमारावासों में एक समय में कितने असुरकुमार उत्पन्न होते हैं? यावत् कितने तेजोलेश्यी उत्पन्न होते हैं ?
कितने कृष्णपाक्षिक उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! रलप्रभापृथ्वी में किये गए प्रश्नों के समान (यहाँ भी)
प्रश्न करना चाहिए और उसका उत्तर भी उसी प्रकार समझ लेना चाहिए। विशेष-यहाँ दो वेदों (स्त्रीवेद और पुरुषवेद) सहित उत्पन्न होते हैं, नपुसंकवेदी उत्पन्न नहीं होते हैं। शेष सब कथन पूर्ववत् समझना चाहिए। उद्वर्तना के विषय में भी उसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष-असंज्ञी भी उद्वर्तना करते हैं। अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी उद्वर्तना नहीं करते। शेष कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। सत्ता के विषय में पूर्ववत् जानना चाहिए। विशेष-वहाँ संख्यात स्त्री वेदक कहे गए हैं। संख्यात पुरुषवेदक हैं, किन्तु नपुंसकवेदक नहीं है। क्रोधकषायी कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते हैं। यदि होते हैं तो जघन्य एक दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात होते हैं। इसी प्रकार मान कषायी और माया कषायी के विषय में भी कहना चाहिए। लोभकषायी संख्यात कहे गए हैं। शेष कथन पूर्ववत् जानना चाहिए।
नपुंसग वेयगा न उववज्जति। सेसंतंचेव। उव्वटुंतगा वि तहेव, णवरं-असण्णी उव्वटंति, ओहिनाणी ओहिदंसणी यण उव्वटंति, सेसंतंचेव। पन्नत्तएसुतहेव, णवरं-संखेज्जगा इत्थिवेदगा पण्णत्ता। एवं पुरिसवेदगा वि, नपुंसगवेदगा नत्थि। कोहकसायी सिय अत्थि, सिय नत्थि, जइ अस्थि जहण्णेणं एक्को वा, दोवा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा पण्णत्ता। एवं माणकसायी मायाकसायी वि।
संखेज्जा लोभकसायी पण्णत्ता। सेसंतं चैव।