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। १४७२ ।। उ. गोयमा ! (णेरइय-देव असंखाउयवज्जेसु)
-जीवा. पडि.१,सु.४१ प. (गब्भवक्कंतिय-मणुस्सा णं भंते !) अणंतरं उव्वट्टित्ता
कहिं गच्छति, कहिं उववज्जति? उ. (गोयमा !) उव्वट्टित्ता नेरइएसु जाव अणुत्तरोव
वाइएसु। अत्थेगइए सिझंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति।
-जीवा. पडि.१, सु.४१ एवं सब्वेसु ठाणेसु उववज्जंति, न कहिंचि पडिसेहो कायव्यो जाव सव्वट्ठसिद्धदेवेसु वि उववज्जंति, अत्यंगइया सिझंति, बुझंति, मुच्चंति, परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति। -पण्ण.प.६, सु. ६७३/२ दं.२२-२४. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया सोहम्मीसाणा यजहा असुरकुमारा।
द्रव्यानुयोग-(२) उ. गौतम ! नैरयिक देव और असंख्यातवर्षायुष्कों को छोड़कर
शेष (मनुष्य तिर्यञ्चों) में उत्पन्न होते हैं। प्र. (भंते ! गर्भज मनुष्य) अनन्तर उद्वर्तन करके कहां जाते हैं,
कहां उत्पन्न होते हैं? उ. (गौतम !) वे उद्वर्तन करके नैरयिकों से अनुत्तरोपपातिक
देवों पर्यन्त उत्पन्न होते हैं, कोई सिद्ध होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं।
णवर-जोइसियाणं वेमाणियाण य चयंतीति अभिलावो
कायव्यो। प. सणंकुमारदेवा णं भंते ! अणंतरं चइत्ता कहिं गच्छंति,
कहिं उववज्जंति? किं णेरइएसु उववजंति जाव वेमाणिएसु देवेसु
उववज्जति? उ. गोयमा ! जहा असुरकुमारा।
णवर-एगिदिएसुन उववजंति। एवं जाव सहस्सारगदेवा। आणय जाव अणुत्तरोववाइया देवा एवं चेव।
इसी प्रकार सभी स्थानों में उत्पन्न होते हैं, सर्वार्थसिद्ध देवों पर्यन्त कहीं भी इनकी उत्पत्ति का निषेध नहीं करना चाहिए। कई मनुष्य सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं और सर्वदुःखों का अन्त करते हैं। दं. २२-२४. वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशान वैमानिक देवों की उद्वर्तना असुरकुमारों के समान कहनी चाहिए। विशेष-ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के लिए (उद्वर्तना के
स्थान पर) “च्यवन" शब्द का प्रयोग करना चाहिए। प्र. भंते ! सनत्कुमार देव अनन्तर च्यवन करके कहां जाते हैं और
कहां उत्पन्न होते हैं? क्या नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं यावत् वैमानिक देवों में उत्पन्न
होते हैं ? उ. गौतम ! असुरकुमारों के समान इनकी उत्पत्ति कहनी चाहिए।
विशेष-(ये) एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते हैं। इसी प्रकार सहस्रार देवों पर्यन्त कथन करना चाहिए। आनत देवों से अनुत्तरोपपातिक देवों पर्यन्त की (च्यवनानन्तर) उत्पत्ति इसी प्रकार समझनी चाहिए। विशेष-(ये देव) तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न नहीं होते हैं। मनुष्यों में भी पर्याप्त संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं।
णवर-णो तिरिक्खजोणिएसु उववजंति, मणूसेसु पज्जत्तगं संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग गब्भवक्कंतियमणूसेसु उववज्जतिरे।
-पण्ण. प.६, सु.६७४-६७६ २९. चउवीसदंडएसु रइयाणं णेरइयाइसु उववज्जणं ।
अणेरइयाइण य उव्वट्टण परूवणंप. दं.१.णेरइएणं भंते !णेरइएसु उववज्जइ,
अणेरइएसु उववज्जइ? उ. गोयमा !णेरइए णेरइएसु उववज्जइ,
णो अणेरइए णेरइएसु उववज्जइ। दं.२-२४.एवं जाव वेमाणियाणं।
२९. चौबीस दंडकों में नैरयिकों का नैरयिकों में उत्पाद और
अनैरयिकों के उद्वर्तन का परूपणप्र. दं.१. भंते ! नारक नारकों में उत्पन्न होता है,
या अनारक नारकों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! नारक नारकों में उत्पन्न होता है,
(किन्तु) अनारक नारकों में उत्पन्न नहीं होता है। दं. २-२४. इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त उत्पत्ति का कथन
करना चाहिए। प्र. दं.१.भन्ते ! नारक नारकों से उद्वर्तन करता है,
या अनारक नारकों से उद्वर्तन करता है? उ. गौतम ! अनारक नारकों से उद्वर्तन करता है,
(किन्तु) नारक नारकों से उद्वर्तन नहीं करता है।
प. दं.१.णेरइएणं भंते ! णेरइएहिंतो उव्वइ,
अणेरइए नेरइएहिंतो उव्वट्टइ? उ. गोयमा ! अणेरइए णेरइएहिंतो उव्वट्टइ,
णोणेरइए णेरइएहिंतो उव्वट्टइ।
१. जैन विश्व भारती लाडनूं के अनुसार
२. जीवा.पडि.३,सु.२०४