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द्रव्यानुयोग-(२) भिन्न-भिन्न जीवों के उपपात (उत्पत्ति) के विरहकाल एवं उद्वर्तन या च्यवन के विरहकाल का भी इस अध्ययन में प्रत्येक दण्डक के अनुसार उल्लेख हुआ है। पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक के एकेन्द्रिय जीवों में एक समय के लिए भी उपपात एवं उद्वर्तन का विरह नहीं होता है। उपपात एवं च्यवन का विरहकाल सबसे अधिक सर्वार्थसिद्ध देवों में होता है। वे जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपम के संख्यातवें भाग तक उपपात एवं च्यवन से विरहित कहे गए हैं। ___ आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने से जीवों में एक स्थान से उद्वर्तन करके दूसरे स्थान पर जन्म ग्रहण करने की गति प्रवृत्त होती है। इस गति को विग्रह गति कहा जाता है। यह विग्रह गति एकेन्द्रियों को छोड़कर सभी जीवों में एक समय, दो समय या तीन समय की होती है। एकेन्द्रियों में चार समय की भी होती है। ये सभी जीव आत्मऋद्धि से, स्वकृत कर्मों से तथा अपने व्यापार से उत्पन्न होते हैं, ईश्वरादि पर ऋद्धि, कर्म एवं व्यापार की इन्हें अपेक्षा नहीं होती।
जिस प्रकार आगम में अनन्तरोपपन्नक, परम्परोपपन्नक एवं अनन्तपरम्परानुपपन्नक की चर्चा है उसी प्रकार अनन्तर निर्गत, परम्पर निर्गत एवं अनन्तरपरम्पर अनिर्गत की भी चर्चा है। निर्गत शब्द यहाँ उद्वर्तित के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है। जिन जीवों को औदारिक या वैक्रिय शरीर छोड़कर निकले प्रथम समय हुआ है वे अनन्तरनिर्गत हैं, जिन्हें दो, तीन आदि समय व्यतीत हो गया है ये परम्पर निर्गत हैं तथा जो विग्रह गति प्राप्त हैं वे अनन्तर परम्पर अनिर्गत हैं।
भगवान से प्रश्न किया गया-भंते ! नारक नारकों में उत्पन्न होता है या अनारक नारकों में उत्पन्न होता है ? भगवान् ने उत्तर दिया-गौतम ! नारक नारकों में उत्पन्न होता है, अनारक नारकों में उत्पन्न नहीं होता। इसका आशय यह है कि जीव जन्म ग्रहण करने के पूर्व ही उस गति से युक्त हो जाता है जिसमें उसे जन्म लेना है तथा इसी प्रकार उद्वर्तन के समय वह उस गति का नहीं रहता जिस गति से वह जीव उद्वर्तन करता है। यह तथ्य जीवों पर लागू होता है।
रत्नप्रभापृथ्वी पर ३० लाख नरकावास हैं। शर्कराप्रभापृथ्वी पर २५ लाख नरकावास हैं। बालुकाप्रभापृथ्वी पर १५ लाख, पंकप्रभा पृथ्वी पर १० लाख, धूमप्रभापृथ्वी पर ३ लाख तथा तम प्रभापृथ्वी पर ९५ हजार नरकावास हैं। तमस्तमप्रभा पृथ्वी पर पाँच अनुत्तर नरकावास हैं-काल, महाकाल, रौरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान। ये सातों पृथ्वियों के नरकावास संख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं तथा असंख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं। रत्नप्रभापृथ्वी के संख्यात योजन विस्तृत नरकावासों में उत्पन्न होने वाले नारकों के सम्बन्ध में इस अध्ययन में ३९ प्रश्नों का समाधान किया गया है। इसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तृत नरकावासों में उत्पन्न होने वाले नैरयिकों के सम्बन्ध में भी उतने ही प्रश्नोत्तर हैं। संख्यात योजन विस्तृत नरकावासों में एक समय में जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात नैरयिक उत्पन्न होते हैं जबकि असंख्यात योजन विस्तृत नरकावासों में उत्कृष्ट असंख्यात नैरयिक उत्पन्न होते हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की विविध आधारों पर संख्या के सम्बन्ध में ३९ प्रश्नों का समाधान भी हुआ है। इसके अन्तर्गत कापोतलेश्यी, संज्ञी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, अनन्तरोपपन्नक, परम्परोपपन्नक, अनन्तरावगाढ़, परम्परावगाढ़ आदि नैरषिकों की संख्या के विषय में चर्चा है। इन प्रश्नोंत्तरों के आधार पर कुछ विशेष ज्ञातव्य बातें उभरकर आती हैं।
रत्नप्रभापृथ्वी के संख्यात योजन विस्तृत नरकावासों में उद्वर्तन करने वाले नारकों के सम्बन्ध में भी उत्पत्ति की भाँति ही ३९ प्रश्नों का समाधान किया गया है। रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की भांति ही शर्कराप्रभा आदि छहों नरकपृथ्वियों के नैरयिकों का उपपात एवं उद्वर्तन होता है, अतः इनके प्रश्नोत्तरों में विशेष भेद नहीं है। नरकावासों की संख्या में अन्तर है जिसका निर्देश पहले कर दिया है। वैशिष्ट्य यह है कि इन छहों पृथ्वियों के नैरयिक असंज्ञी नहीं होते हैं। लेश्याओं की अपेक्षा पहली, दूसरी नरक में कापोधलेश्या है, तीसरी में कापोत और नील, चौथी में नील, पाँचवीं में नील और कृष्ण, छठी में कृष्ण और सातवीं नरक में परमकृष्ण लेश्या है। पंकप्रभापृथ्वी से लेकर अद्यः सप्तमी पृथ्वी तक अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी नैरयिक उद्वर्तन नहीं करते हैं। सातवीं नरक में तीन ज्ञानयुक्त जीव उत्पन्न नहीं होते हैं तथा उद्वर्तन भी नहीं करते हैं किन्तु सत्ता में तीन ज्ञान वाले नैरयिक पाये जाते हैं।
भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों के उत्पाद, उद्वर्तन या च्यवन के सम्बन्ध में भी नैरयिकों की भांति ४९-४९ प्रश्नों के समाधान दिए गए हैं। असुरकुमारों के ६४ लाख आवास कहे गए हैं। नागकुमार आदि सभी भवनपतियों के भी इसी प्रकार चौंसठ-चौंसठ लाख आवास हैं। ये आवास भी संख्यात योजन विस्तार वाले एवं असंख्यात योजन विस्तार वाले होते हैं। ये देव स्त्रीवेद या पुरुषवेद सहित उत्पन्न होते हैं, नपुंसकवेदी नहीं होते। ये असंज्ञी भी उद्वर्तना करते हैं। अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी उद्वर्तना नहीं करते हैं। संख्यात योजन विस्तार वाले आवासों में उत्कृष्ट संख्यात भवनपति देव उत्पन्न होते हैं एवं असंख्यात योजन विस्तार वाले आवासों में असंख्यात उत्पन्न होते हैं। वाणव्यन्तर देवों के असंख्यात लाख आवास हैं। ज्योतिष्क देवों के असंख्यात लाख विमानावास हैं। ज्योतिष्क देवों में एक तेजोलेश्या होती है अन्य नहीं,जबकि भवनपति देवों में प्रथम चार लेश्याएँ होती हैं। सौधर्म एवं ईशान देवलोक में बत्तीस-बत्तीस लाख विमानावास हैं। सनत्कुमार से सहस्रार तक विमानावासों में थोड़ा अन्तर है। आनत और प्राणत देवलोकों में चार सौ विमानावास हैं। आरण और अच्युत के विमानावासों में थोड़ा अन्तर है। अनुत्तर वैमानिकों के पाँच विमान हैं उनमें एक संख्यात योजन विस्तार वाला तथा चार असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं। इन देवों एवं नैरयिकों के सम्बन्ध में जो वर्णन मिलता है उसे तीन आलापकों में प्रस्तुत किया गया है। वे आलापक हैं-उपपात, उद्वर्तन और सत्ता।