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द्रव्यानुयोग-(२) अवगाहना की अपेक्षा इनमें अल्प बहुत्व है। सबसे अल्प अवगाहना अपर्याप्त सूक्ष्मनिगोद (वनस्पतिकाय) की जघन्य अवगाहना है। उससे अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकायिक, अपर्याप्त सूक्ष्म अग्निकायिक, अपर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिक एवं अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक की जघन्य अवगाहना उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी है। सबसे अधिक अवगाहना पर्याप्त प्रत्येक शरीरी वनस्पतिकायिक जीव की उत्कृष्ट अवगाहना होती है। बादर एवं सूक्ष्म के पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक की अवगाहना मध्य में वर्णित है।
इन जीवों की परस्पर अवगाढ़ता के प्रश्न पर भगवान् फरमाते हैं कि जहाँ पृथ्वीकाय का एक जीव अवगाढ़ होता है वहाँ असंख्यात पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ़ होते हैं तथा असंख्यात अप्कायिक, असंख्यात तेजस्कायिक, असंख्यात वायुकायिक एवं अनन्त वनस्पतिकायिक जीव अवगाढ़ होते हैं। इसी प्रकार जहां अकाय आदि का एक जीव अवगाढ़ होता है वहाँ वनस्पतिकाय के अनन्त जीव एवं शेष स्थावरकायों के असंख्यात जीव अवगाढ़ होते हैं।
इस अध्ययन में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों का लेश्या आदि १२ द्वारों से प्रश्नोत्तर शैली में प्ररूपण किया गया है। वे बारह द्वार हैं१. शरीर, २. लेश्या, ३. दृष्टि, ४. ज्ञान, ५. योग, ६. उपयोग, ७. आहार, ८. पापस्थान, ९. उपपात, १०. स्थिति, ११. समुद्घात, १२. उद्वर्तना। एकेन्द्रियों में प्रथम द्वार के अनुसार पृथ्वीकायिक, अप्कायिक तेजस्कायिक एवं वायुकायिक जीव प्रत्येक जीव पृथक्-पृथक् आहार ग्रहण करते हैं और उस आहार को पृथक-पृथक् परिणत करते हैं, इसलिए वे पृथक्-पृथक् शरीर बाँधते हैं, जबकि वनस्पतिकाय के अनन्त जीव मिलकर एक साधारण शरीर बाँधते हैं और फिर आहार करते हैं, परिणमाते हैं और विशिष्ट शरीर बाँधते हैं। लेश्याएँ पृथ्वीकायादि सब स्थावरों में चार मानी गई हैं-कृष्ण, नील, कापोत एवं तेजो लेश्या। ये सभी मिथ्यादृष्टि हैं। सभी अज्ञानी हैं। इनमें मति अज्ञान एवं श्रुत अज्ञान ये दो अज्ञान हैं। इनमें मात्र काययोग पाया जाता है, मनोयोग एवं वचन योग नहीं पाया जाता। उपयोग की दृष्टि से ये साकारोपयोगी भी हैं एवं अनाकारोपयोगी भी हैं। ये सर्व आत्मप्रदेशों से कदाचित् चार, पाँच एवं छह दिशाओं से आहार लेते हैं। वनस्पतिकायिक जीव नियमतः छहों दिशाओं से आहार ग्रहण करते हैं। पृथ्वीकायादि समस्त एकेन्द्रिय जीव जो आहार ग्रहण करते हैं उसका चय होता है और उसका असारभाग बाहर निकलता है तथा सारभाग शरीर, इन्द्रियादि में परिणत होता है। इन जीवों को यह संज्ञा, प्रज्ञा, मन एवं वचन नहीं होते हैं कि वे आहार करते भी हैं, फिर भी वे आहार तो करते ही हैं। इसी प्रकार उन्हें इष्ट एवं अनिष्ट के स्पर्श की संज्ञा, प्रज्ञा आदि नहीं होती फिर भी वे वेदन तो करते ही हैं। इनमें प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक के १८ पाप रहे हुए हैं। पृथ्वीकायिक आदि जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं इसका निरूपण व्युत्क्रान्ति (वक्कति) अध्ययन में किया गया है। फिर भी संक्षेप में कहा जाय तो पृथ्वी, अप एवं वनस्पतिकाय में तिर्यञ्च गति, मनुष्यगति एवं देवगति के २३ दण्डकों (नारकी को छोड़कर) से उत्पत्ति होती है तथा तेजस्काय एवं वायुकाय में तिर्यञ्चगति एवं मनुष्यगति के १० दण्डकों से आगमन होता है। सभी एकेन्द्रिय जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है, किन्तु उत्कृष्ट स्थिति भिन्न-भिन्न है। पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट स्थिति २२ हजार वर्ष, अप्काय की ७ हजार वर्ष, तेजस्काय की ३ अहोरात्रि, वायुकाय की ४९ दिन एवं वनस्पतिकाय की एक करोड़ पूर्व की है। इनका वर्णन भी वक्कंति अध्ययन में द्रष्टव्य है। पृथ्वी, अप्, तेजस् एवं वनस्पतिकाय में तीन समुद्घात हैंवेदना, कषाय और मारणान्तिक। वायुकाय में वैक्रिय सहित चार समुद्घात होते हैं। एकेन्द्रिय के समस्त प्रकार के जीव मारणान्तिक समुद्घात करके भी मरते हैं और बिना मारणान्तिक किए भी मरते हैं। ये उद्वर्तना करके (मरकर) कहाँ जाते हैं इसका निरूपण वुक्कंति अध्ययन में किया गया है फिर भी संक्षेप में पृथ्वी, अप एवं वनस्पतिकायिक जीव मनुष्य एवं तिर्यञ्चगति के १० दण्डकों में जाते हैं तथा तेजस्काय एवं वायुकायिक जीव मात्र तिर्यञ्चगति के ९ दण्डकों में जाते हैं। ___ विकलेन्द्रिय जीवों (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय जीवों) में भी लेश्यादि १२ द्वारों का निरूपण है। द्वीन्द्रियादि विकलेन्द्रिय जीव पृथक्-पृथक आहार कर पृथक्-पृथक् परिणमन करते हैं तथा पृथक्-पृथक् शरीर बाँधते हैं। इनमें कृष्ण, नील एवं कापोत, ये तीन लेश्याएँ होती हैं। ये सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी होते हैं। इनमें दो ज्ञान (मति एवं श्रुत) अथवा दो अज्ञान (मति एवं श्रुत) पाए जाते हैं। इनमें वचनयोग एवं काययोग होता है, मनोयोग नहीं। ये नियमतः छहों दिशाओं से आहार लेते हैं। ये दो गतियों तिर्यञ्चगति एवं मनुष्यगति के १0 दण्डकों से आते हैं तथा उन्हीं में जाते हैं। इनकी स्थिति भिन्न-भिन्न होती है। द्वीन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति १२ वर्ष त्रीन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति ४९ अहोरात्रि एवं चतुरिन्द्रिय ६ मास है। जघन्य स्थिति सबकी अन्तर्मुहूर्त है। ये उद्वर्तना करके मनुष्यगति तिर्यञ्चगति के १० दण्डकों में ही जाते हैं। शेष वर्णन पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों की भाँति है। विशेषता यह है कि ये नियमतः छहों दिशाओं से आहार लेते हैं। ___ इन लेश्यादि १२ द्वारों का तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीवों में भी निरूपण किया गया है। इनके अनुसार ये भी द्वीन्द्रियों की भाँति पृथक्-पृथक् आहार ग्रहण कर उनका पृथक्-पृथक् परिणमन करते हैं तथा पृथक्-पृथक् शरीर बाँधते हैं। इनमें छहों लेश्याएँ (तेजो, पद्म एवं शुक्ल सहित) एवं तीनों दृष्टियाँ (सम्यगमिथ्यादृष्टि सहित) होती हैं। तिर्यञ्च पंचेन्दिर्य में तीन ज्ञान एवं तीन अज्ञान होते हैं। शेष वर्णन द्वीन्द्रियादि के समान है। इनका उत्पाद, स्थिति, समुद्रघात एवं उद्वर्तना का वर्णन भिन्न है. ये चार गति के २४ ही दण्डकों से आ सकते हैं तथा २४ ही दण्डकों में जा सकते हैं। इनमें केवली एवं आहारक समुद्घात के अतिरिक्त पाँच समुद्घात होते हैं। इनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम होती है। प्रस्तुत अध्ययन में पंचेन्द्रियों का सामान्य ग्रहण हो गया है, किन्तु तिर्यञ्चगति अध्ययन में मात्र तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय विषयक सामग्री ही ग्राह्य है।