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सेसंतं चेव। वाउकाइयाणं एवं चेव, नाणत्तंणवरं-चत्तारि समुग्घाया।
प. सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच वणस्सइकाइया एगयओ
साहारणसरीरं बंधंति, बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा, परिणामेंति वा, सरीरं वा बंधति?
उ. गोयमा ! णो इणढे समढे, अणंता वणस्सइकाइया एगयओ
साहारणसरीरं बंधति बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा, परिणामेंति वा, सरीरं वा बंधंति। सेसं जहा तेउक्काइयाण जाव उव्वट्टति।
णवर-आहारो नियम छद्दिसिं, ठिई जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं,सेसंतं चेव।
-विया. स. १९, उ.३, सु.२-२१ १२. लेस्साइ बारसदाराणं विगलेंदिय जीवेसु परूवणं
रायगिहे जाव एवं वयासीप. सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच बेंदिया एगयओ
साहारणसरीरं बंधति बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा, परिणामेंति वा, सरीरं वा बंधंति?
| द्रव्यानुयोग-(२) ] शेष सब कथन पूर्ववत् है। वायुकायिक जीवों का कथन भी इसी प्रकार है। विशेष-भिन्नता यह है वायुकायिक जीवों में चार समुद्घात
होते हैं। प्र. भंते ! क्या कदाचित् दो यावत् चार या पांच वनस्पतिकायिक
जीव मिल कर एक साधारण शरीर बांधते हैं और इसके पश्चात् आहार करते हैं, परिणमाते हैं और (विशिष्ट) शरीर
बांधते हैं? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, अनन्त वनस्पतिकायिक जीव
मिल कर एक साधारण शरीर बांधते हैं, फिर आहार करते हैं, परिणमाते हैं और (विशिष्ट ) शरीर बांधते हैं इत्यादि सब तेजस् कायिकों के समान उद्वर्तना करते हैं पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष-वे आहार नियमतः छहों दिशाओं से लेते हैं, उनकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है। शेष सब
कथन पूर्ववत् है। १२. लेश्यादि बारह द्वारों का विकलेन्द्रिय जीवों में प्ररूपण
राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछाप्र. भन्ते ! क्या (कदाचित्) दो, तीन, चार या पांच द्वीन्द्रिय जीव मिलकर एक साधारण शरीर बांधते हैं और बांधकर उसके बाद आहार करते हैं आहार को परिणमाते हैं फिर विशिष्ट
शरीर को बांधते हैं ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि द्वीन्द्रिय जीव
पृथक्-पृथक् आहार करने वाले, पृथक्-पृथक् परिणमाने वाले और पृथक्-पृथक् शरीर बांधने वाले होते हैं, बांधकर फिर आहार करते हैं, उसका परिणमन करते हैं फिर विशिष्ट
शरीर बांधते हैं। प्र. भन्ते ! उन (द्वीन्द्रिय) जीवों के कितनी लेश्याएं कही गई हैं? उ. गौतम ! उनके तीन लेश्याएं कही गई हैं, यथा
१. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या, ३. कापोतलेश्या। इस प्रकार समग्र वर्णन उन्नीसवें शतक में अग्निकायिक जीवों के विषय में पूर्व में जैसा कहा है, वह यहां भी उद्वर्तित होते हैं पर्यन्त कहना चाहिए। विशेष-द्वीन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं परन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते हैं। उनके नियमतः दो ज्ञान या दो अज्ञान होते हैं। वे मनोयोगी नहीं होते किन्तु वचनयोगी और काययोगी होते हैं।
वे नियमतः छहों दिशाओं से आहार लेते हैं। प्र. भन्ते ! क्या उन जीवों को हम इष्ट अनिष्ट रस तथा इष्ट
अनिष्ट स्पर्श का प्रतिसंवेदन (अनुभव) करते हैं, ऐसी संज्ञा,
प्रज्ञा, मन या वचन होता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, वे रसादि का प्रतिसंवेदन
करते हैं। उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बारह वर्ष की होती है।
उ. गोयमा ! नो इणढे समढे, बेंदिया णं पत्तेयाहारा य,
पत्तेयपरिणामा, पत्तेयसरीरं बंधंति बंधित्ता तओ पच्छा आहारेति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति।
प. तेसि णं भंते ! जीवाणं कइ लेस्साओ पन्नत्ताओ? उ. गोयमा ! तओ लेस्साओ पन्नत्ताओ,तं जहा
१. कण्हलेस्सा, २. नीललेस्सा, ३. काउलेस्सा। एवं जहा एगूणवीसइमे सए तेउकाइयाणं जाव उव्वटंति
णवर-सम्मद्दिट्ठी वि, मिच्छद्दिट्ठी वि, नो सम्मामिच्छद्दिट्ठी,
दो नाणा, दो अन्नाणा नियम, नो मणजोगी, वयजोगी वि, कायजोगी वि,
आहारो नियम छद्दिसिं। प. तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सन्ना ति वा, पन्ना ति वा, मणे
ति वा, वयी ति वा अम्हे णं इट्ठाणिढे रसे, इट्टाणिढे फासे,
पडिसंवेदेमो? उ. गोयमा ! णो इणढे समढे, पडिसंवेदेति पुण ते। ठिई
जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराई