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द्रव्यानुयोग-(२) वे मध्यम परिषद् के देव बाह्य परिषद् के देवों को बुलाते हैं।
बाह्य परिषद् के देव बाह्य परिषद् से बाहर के देवों को बुलाते हैं। बाह्य परिषद् के बाहर के देव आभियोगिक देवों को बुलाते हैं।
आभियोगिक देव वृष्टिकायिक देवों को बुलाते हैं।
तब वे बुलाये हुए वृष्टिकायिक देव वृष्टि करते हैं।
इस प्रकार हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र वृष्टि करता है।
तए णं ते मज्झिमपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरपरिसाए देवे सद्दावेंति, तए णं ते बाहिरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिर बाहिरगे देवे सद्दावेंति, तए णं ते बाहिर-बाहिरगा देवा सद्दाविया समाणा आभियोगिए देवे सद्दावेंति, तए णं ते आभियोगिए देवे सद्दाविया समाणा वुट्ठिकाइए देवे सद्दावेंति, तए णं ते वुट्ठिकाइया देवा सद्दाविया समाणा वुट्ठिकायं पकरेंति। एवं खलु गोयमा ! सक्के देविंदे देवराया वुट्ठिकायं
पकरेइ। प. अत्थि णं भंते ! असुरकुमारा वि देवा वुट्ठिकायं
पकरेंति? उ. हंता, गोयमा ! अत्थि। प. किं पत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा वुट्ठिकायं
पकरेंति? उ. गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंतो एएसिणं
१: जम्मणमहिमासुवा, २. निक्खमणमहिमासु वा, ३. नाणुप्पायमहिमासु वा, ४. परिनिव्वाणमहिमासु वा, एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा वुट्ठिकायं पकरेंति। एवं नागकुमारा वि। एवं जाव थणियकुमारा।
प्र. भंते ! क्या असुरकुमार देव भी वृष्टि करते हैं ?
उ. हाँ, गौतम ! वे भी वृष्टि करते हैं। प्र. भंते ! असुरकुमार देव किस प्रयोजन से वृष्टि करते हैं?
वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया एवं चेव।
-विया.स.१४, उ.२,सु.७-१३ ३८. अव्वाबाहदेवाणं अव्वाबाहत्तकारण परूवणं
प. अत्थि णं भंते ! अव्वाबाहा देवा,अव्वाबाहा देवा?
उ. गौतम ! अरिहन्त भगवंतों के
१. जन्म महोत्सवों पर, २. निष्कमण महोत्सवों पर, ३. केवलज्ञानोत्पत्ति महोत्सवों पर, ४. परिनिर्वाण महोत्सवों पर, इस प्रकार हे गौतम ! असुरकुमार देव वृष्टि करते हैं। इसी प्रकार नागकुमार देव भी वृष्टि करते हैं। स्तनितकुमारों पर्यन्त भी वृष्टि के लिए इसी प्रकार कहना चाहिए। वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के लिए भी इसी
प्रकार कहना चाहिए। ३८. अब्याबाध देवों के अब्याबाधत्व के कारणों का प्ररूपणप्र. भंते ! क्या किसी को बाधापीड़ा नहीं पहुँचाने वाले अव्याबाध
देव हैं? उ. हाँ, गौतम हैं। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
'अव्याबाध देव, अव्याबाधदेव हैं।' उ. गौतम ! प्रत्येक अव्याबाधदेव, प्रत्येक पुरुष की प्रत्येक आंख
की पलक पर दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवधुति, दिव्य देवानुभाव और बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधि दिखाने में समर्थ हैं और ऐसा करके भी वह देव उस पुरुष को किंचित् मात्र भी आबाधा या व्याबाधा (थोड़ी या अधिक पीड़ा) नहीं पहुँचाता है और न उसके अवयव का छेदन करता है। इतनी सूक्ष्मता से वह (अव्याबाध) देव नाट्यविधि दिखला सकता है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'अव्याबाधदेव, अव्याबाधदेव' है।
उ. हता,गोयमा ! अत्थि। प. सेकेणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"अव्वाबाहा देवा,अव्वाबाहा देवा?" उ. गोयमा ! पभू णं एगमेगे अव्वाबाहे देवे एगमेगस्स
पुरिसस्स एगमेगंसि अच्छिपत्तंसि दिव्यं देविड्ढि, दिव्वं देवजुई, दिव्वं देवाणुभाग, दिव्वं बत्तीसइविहिं नट्टविहिं उवदंसेत्तए णो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि आबाहं वा, वाबाहं वा उप्पाएइ छविच्छेयं वा करेइ, एसुहुमं च णं उवदंसेज्जा,
से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"अव्वाबाहा देवा, अव्वाबाहा देवा।"
-विया.स.१४, उ.८,सु.२३