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प. दो भंते ! नागकुमारा देवा एगंसि नागकुमारावासंसि
नागकुमारदेवत्ताए उववन्ना जाव से कहमेय भंते ! एवं? उ. गोयमा !एवं चेव।
एवंजाव थणियकुमारा। वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया एवं चेव।
-विया.स.१८, उ.५,सु.१-४ ३१. देवाणं पीहा परूवणं
तओठाणाई देवे पीहेज्जा,तं जहा१. माणुस्सगं भवं, २.आरिए खेत्ते जम्म,
३. सुकुलपच्चायाइ। -ठाणं. अ.३, उ. ३, सु. १८४/१ ३२. देवाणं परितावण कारणतिगं परूवणं
तिहिं ठाणेहिं देवे परितप्पेज्जा,तं जहा
__द्रव्यानुयोग-(२) प्र. भन्ते ! एक नागकुमारावास में दो नागकुमार देव उत्पन्न होते ___ हैं यावत् भन्ते ! किस कारण से इस प्रकार कहा जाता है ? उ. गौतम ! पूर्ववत् समझना चाहिए।
इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त जानना चाहिए। वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में भी इसी
प्रकार समझना चाहिए। ३१. देवों की स्पृहा का प्ररूपण
देव तीन स्थानों की स्पृहा (आकांक्षा) करता है, यथा१. मनुष्य भव की २. आर्य क्षेत्र में जन्म की,
३. सुकुल (श्रेष्ठ कुल) में उत्पन्न होने की। ३२. देवों के परितप्त होने के कारणों का प्ररूपण
तीन कारणों से देव परितप्त (पश्चात्ताप करते हुए दुःखी) होते हैं, यथा१. अहो मैंने बल-वीर्य-पुरुषाकार-पराक्रम, क्षेम, सुभिक्ष,
आचार्य, उपाध्याय की उपस्थिति तथा नीरोग शरीर के होते हुए भी श्रुत का पर्याप्त अध्ययन नहीं किया। २. अहो ! मैंने विषयाभिलाषी होने से इहलोक में प्रतिबद्ध और
परलोक से विमुख होकर दीर्घ काल तक श्रामण्य पर्याय का
पालन नहीं किया। ३. अहो ! मैंने ऋद्धि, रस और शाता के मद में ग्रस्त होकर
भोगासक्त होकर विशुद्ध चारित्र का पालन नहीं किया। इन तीन कारणों से देव परितप्त होते हैं।
१. अहो णं मए संते बले, संते वीरिए, संते पुरि
सक्कारपरक्कमे खेमंसि सुभिक्खंसिआयरिय उव्वझाएहिं
विज्जमाणएहिं कल्लसरीरेणं नो बहुए सुए अहीए, . २. अहो णं मए इहलोय पडिबुद्धेणं परलोय परंमुहेणं
विसयतिसिएणं नो दीहे सामण्णपरियाए आणुपालिए, ३. अहो णं मए इड्ढि रस सायगरूएणं भोगासंसगिद्धेणं नो
विसुद्धे चरित्ते फासिए। इच्चेएहिं तिहिं ठाणेहिं देवे परितप्पेज्जा।
-ठाणं.अ.३,उ.३.सु.१८४/२ ३३. देवस्स चवणणाणोव्वेग कारणाणि परूवणं
तिहिं ठाणेहिं देवे चइस्सामित्ति जाणइ, तं जहा१. विमाणाभरणाई णिप्पभाई पासित्ता, २. कप्परुक्खगं मिलायमाणं पासित्ता, ३. अप्पणो तेयलेस्सं परिहायमाणिं जाणित्ता, इच्चेएहिं तिहिं ठाणेहिं देवे चइस्सामित्ति जाणइ। तिहिं ठाणेहिं देवे उव्वेगमागच्छेज्जा,तं जहा१. अहो ! णं मए इमाओ एयारूवाओ दिव्याओ देविड्ढीओ,
दिव्याओ देवजुईओ, दिव्वाओ देवाणुभावाओ, लुद्धाओ,
पत्ताओ, अभिसमण्णागयाओ चइयव्वं भविस्सइ, २. अहो ! णं मए माउओयं पिउसुक्कं तं तदुभयसंसट्ठ
तप्पढमयाए आहारो आहारेयव्वो भविस्सइ, ३. अहो ! णं मए कलमलजंबालाए असुईए उव्वेयणियाए
भीमाए गब्भवसहीए वसियव्वं भविस्सइ, इच्चेएहिं तिहिं ठाणेहिं देवे उव्वेगमागच्छेज्जा।
-ठाणं.अ.३,उ.३,सु. १८५ ३४. देवाणं अब्भुट्ठिज्जाइ कारण परूवणं
चउहि ठाणेहिं देवा अब्भुट्ठिज्जा, तं जहा
३३. देव के च्यवनज्ञान और उद्वेग के कारणों का प्ररूपण
तीन हेतुओं से देव यह जान लेता है कि मैं च्युत होऊँगा, यथा१. विमान और आभरणों को निष्प्रभ देखकर। २. कल्पवृक्ष को मुझाया हुआ देखकर। ३. अपनी तेजोलेश्या (क्रान्ति) को क्षीण होती हुई जानकर। इन तीन हेतुओं से देव यह जान लेता है कि मैं च्युत होऊँगा। तीन कारणों से देव उद्वेग हो प्राप्त होता है, यथा१. अहो ! मुझे यह और इस प्रकार की उपार्जित, प्राप्त तथा
अभिसमन्वागत दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देव द्युति और दिव्य प्रभाव को छोड़ना पड़ेगा। २. अहो ! मुझे सर्वप्रथम माता के ओज तथा पिता के शुक्र से युक्त
आहार को लेना होगा। ३. अहो ! मुझे असुरभि पंक वाले, अपवित्र उद्वेग पैदा करने वाले
भयानक गर्भाशय में रहना होगा। इन तीन कारणों से देव उद्वेग को प्राप्त होता है।
३४. देवों के अब्भ्युत्थानादि के कारणों का प्ररूपण
चार कारणों से देव अपने सिंहासन से (सम्मानार्थ) अभ्युत्थित (उठते) होते हैं१. अर्हन्तों का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों के प्रव्रजित होने के अवसर पर,
१. अरहंतेहिं जायमाणेहिं, २. अरहंतेहिं पव्वयमाणेहिं,