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। मनुष्य गति अध्ययन
१२९७ प्रकार निरूपित हैं। पुरुष के तथा, जो तथा, सौवस्तिक एवं प्रधान के रूप में भी चार प्रकार प्रतिपादित हैं। वैयावृत्य करने-कराने एवं न करने-कराने के आधार पर भी पुरुष चार प्रकार के होते हैं। व्रण करने एवं न करने के साथ परिमर्श (उपचार), संरक्षण (देखभाल) एवं सरोह (भरण) के भी चार-चार भङ्ग बने हैं। वनखंड के दृष्टान्त से भी चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं। वृक्षों के प्रणत एवं उन्नत होने, ऋजु एवं वक्र होने पत्तों आदि से युक्त होने के दृष्टान्तों से भी पुरुष के चार-चार प्रकार प्रतिपादित हैं। असिपत्र, करपत्र, क्षुरपत्र एवं कदम्वचीरिका पत्र की भाँति मनुष्य (पुरुष) भी चार प्रकार का कहा गया है। कोरक पुष्प, कच्चे फल, समुद्र, शंख, मधु-विष कुम्भ, पूर्ण-तुच्छ कुम्भ आदि के दृष्टान्तों से भी पुरुष के चतुर्विधत्व को स्पष्ट किया गया है। पूर्ण एवं तुच्छ कुम्भ के दृष्टान्त से पुरुष की ५ चौभंङ्गी, मार्ग के दृष्टान्त से ३ चौभंङ्गी, यान के दृष्टान्त से ४ चौभंगी, युग्य (वाहन विशेष) के दृष्टान्त से ४ चौभंगी, निरूपित हैं। सारथि के दृष्टान्त से पुरुष को योजक-वियोजक के आधार पर चार प्रकार का बतलाया गया है। वृषभ को चार प्रकार का बतलाकर पुरुष को भी चार प्रकार का कहा गया है-(१) जाति सम्पन्न, (२) कुल सम्पन्न, (३) बल सम्पन्न एवं (४) रूप सम्पन्न। फिर जाति, कुल, बल एवं रूप के परस्पर विधेयात्मक, निषेधात्मक आदि के रूप में ७ चतुर्भङ्ग प्रतिपादित हैं। आकीर्ण (तेजगति वाले) एवं खलुक (मन्द गति वाले) अश्व के दृष्टान्त से भी पुरुष के भंगों का निरूपण हुआ है। जाति, कुल, बल, रूप एवं सम्पन्न घोड़े के दृष्टान्त द्वारा पुरुष के १० चतुर्भङ्गों का आख्यापन है। अश्व की युक्तायुक्तता के दृष्टान्त से पुरुष के ४ चतुर्भङ्ग, हाथी की युक्तायुक्ता के दृष्टान्त से ५ चतुर्भङ्ग एवं सेना के दृष्टान्त से २ चतुर्भङ्गों का प्रतिपादन हुआ है। हाथी चार प्रकार के कहे गए हैं-(१) भद्र, (२) मंद, (३) मृग एवं संकीर्ण। इन चारों के स्वरूप का वर्ण करते हुए पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं। फिर इन भेदों के आधार पर पुरुष के अनेक चतुर्भङ्ग बने हैं। स्वर एवं रूप से सम्पन्न पक्षी के दृष्टान्त से, शुद्ध-अशुद्ध वस्त्रों के दृष्टान्त से, पवित्र-अपवित्र वस्त्रों के दृष्टान्त से एवं चटाई के दृष्टान्त से भी पुरुष के चतुर्विधत्व का ख्यापन हुआ है। मधुसिक्टा (मोम), जतु, दाऊ (काष्ठ) एवं मिट्टी के गोलों, लोहे, त्रपु, ताँबे एवं शीशे के गोलों, चाँदी, सोने, रल एवं हीरे के गोलों के दृष्टान्त से भी पुरुष चार-चार प्रकार के कहे गए हैं। कूटागार एवं मेघ के दृष्टान्तों से भी पुरुष की चतुर्भङ्गियों का प्रतिपादन हुआ है। इस प्रकार विविध दृष्टान्तों के माध्यम से पुरुष (मनुष्य) को चार प्रकार का प्रतिपादित किया गया है।
मेघ के दृष्टान्तों से माता-पिता एवं राजा के चार-चार प्रकार कहे गे हैं। वातमंडलिका के दृष्टान्त से स्त्रियाँ चार प्रकार की कही गई हैं। स्त्रियों के चतुर्विधत्व का प्रतिपादन धूमशिखा, अग्निशिखा, कूटागारशाला आदि के दृष्टान्तों के माध्यम से भी किया गया है। मृतक अर्थात् श्रमिक, सुत (पुत्र) प्रसर्पक (प्रयत्नशील) एवं तैराकों के भी चार-चार प्रकारों का इस अध्ययन में प्रतिपादन हुआ है। ये सब मनुष्यगति के जीव हैं। इसलिए इन्हें इस अध्ययन में लिया गया है।
पुरुष का प्रतिपादन पाँच एवं छह प्रकारों में भी हुआ है। स्थानांग सूत्र के अनुसार पुरुष पाँच प्रकार के इस प्रकार हैं-हीस्त्व, ह्रीमनः सत्त्व, चलसत्ता, स्थिरसत्त्व एवं उदयनसत्त्व। इनके अर्थ का प्रतिपादन अध्ययन में यथास्थान किया गया है। मनुष्य के छह प्रकारों का प्रतिपदान दो प्रकार से उपलब्ध है। प्रथम प्रकार के अनुसार जम्बूद्वीप, घातकीखण्ड द्वीप के पूर्वार्द्ध एवं पश्चिमार्द्ध, अर्धपुष्करद्वीप के पूर्वार्द्ध एवं पश्चिमार्द्ध तथा अन्तर्वीपों में उत्पन्न होने के कारण मनुष्य छह प्रकार के हैं। द्वितीय प्रकार के अनुसार कर्मभूमि, अकर्मभूमि एवं अन्तर्वीप में उत्पन्न त्रिविध सम्मूच्छेम एवं त्रिविध गर्भज मिलकर छह प्रकार के होते हैं। ऋद्धिसम्पन्न मनुष्यों के पृथक्रूपेण ६ प्रकार निर्दिष्ट हैं-(१) अर्हन्त, (२) चक्रवर्ती, (३) बलदेव, (४) वासुदेव, (५) चारण एवं (६) विद्याधर। जो ऋद्धि सम्पन्न नहीं हैं वे भी हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यक्वर्ष, कुरुवर्ष एवं अन्तर्वीपों में उत्पन्न होने से ६ प्रकार के हैं। नैपुणिकं पुरुषों के ९ प्रकार एवं पुत्रों के आत्मज, क्षेत्रज आदि दस प्रकारों का भी इस अध्ययन में उल्लेख है।
एकोरुक द्वीप के पुरुषों एवं स्त्रियों के शरीर सौष्ठव का इस अध्ययन में सुन्दर वर्णन हुआ है। उनके पैरों, अंगुलियों, टखनों, घुटनों, कमर, वक्ष स्थल, भुत्रा, हाथ, नख, हस्तरेखा आदि समस्त अंगों का स्वरूप इसमें वर्णित है। इन मनुष्यों के लिए कहा गया है कि ये स्वभाव से भद्र, विनीत, शान्त, अल्प क्रोध-मान-माया एवं लोभ वाले, मार्दव सम्पन्न एवं संयत चेष्टा वाले होते हैं। इन्हें एक दिन छोड़कर एक दिन आहार करना होता है। स्त्रियाँ छत्र, ध्वजा आदि ३२ लक्षणों से सम्पन्न होती हैं। पुरुषों की चाल हस्ती के समान एवं स्त्रियों की चाल हंस के समान कही गई है। ये स्त्री-पुरुष पृथ्वी, पुष्प
और फलों का आहार करते हैं। पृथ्वी आदि का स्वाद भी अत्यन्त इष्ट एवं मनोज्ञ कहा गया है। ये अपना अलग से घर बनाकर नहीं रहते अपितु गेहाकार परिणत वृक्षों में ही ये निवास करते हैं। एकोरुक द्वीप में ग्राम, नगर यावत् सन्निवेश नहीं हैं। वहाँ पर असि, मषी, कृषि, पण्य एवं वाणिज्य भी नहीं है। सोने चाँदी जैसे वस्तुओं में उनका तीव्र ममत्वभाव नहीं होता। वहाँ पर राजा, सार्थवहि दास, नौकर आदि नहीं है। माता-पिता आदि के प्रति भी तीव्र प्रेम बन्धन नहीं होता है। वहाँ पर कोई अरि, घातक, वधक आदि नहीं हैं। मित्र आदि भी नहीं हैं। वहाँ पर सगाई, विवाह, यज्ञ, स्थालीपाक जैसे संस्कार भी नहीं होते हैं। वे महोत्सव भी नहीं मनाते हैं। वहाँ किसी भी प्रकार का वाहन नहीं है। वे पैदल चलते हैं। घोड़े, हाथी, ऊँट, बैल आदि पशु हैं, किन्तु उनका वाहन के रूप में उपयोग नहीं करते हैं। एकोरुक द्वीप में सिंह, व्याघ्र आदि पशु हैं, किन्तु वे स्वभाव से भद्र प्रकृति वाले हैं। एकोरुक द्वीप का भू-भाग बहुत समतल और रमणीय कहा गया है। यह स्थान प्राकृतिक उपद्रव रहित है। वहाँ के निवासी मनुष्य रोग एवं आतंक से भी मुक्त हैं।
ये एकोरुक द्वीप के मनुष्य छह मास की आयु शेष रहने पर एक युगलिक को जन्म देते हैं तथा बिना कष्ट के मृत्यु को प्राप्त होकर देवलोक में उत्पन्न होते हैं। इनकी उत्कृष्ट आयु पल्योपम का असंख्यात भाग होती है तथा जघन्य उससे असंख्यातवें भाग कम होती है। जम्बूद्वीप के भरत एवं ऐरवत क्षेत्र के सुषमा नामक काल में मनुष्यों की ऊँचाई दो गाड एवं उत्कृष्ट आयु दो पल्योपम होती है। इन्हीं क्षेत्रों में सुषमसुषमा कालम में ऊँचाई तीन गाड एवं उत्कृष्ट आयु तीन पल्योपम होती है। देवकुरु, उत्तरकुरु, घातकी खण्ड एवं अर्धपुष्करद्वीप के पूर्वार्द्ध एवं पश्चिमार्द्ध में भी उत्कृष्ट अवगाहना तीन गाड एवं उत्कृष्ट आयु तीन पल्योपम कही गई है।