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देव गति अध्ययन
१३८५ भी होता है तथा कदाचित् विवाद भी हो जाता है। इनका विवाद देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार दूर करते हैं। इसका यह तात्पर्य है कि ऊपर के देवेन्द्रों का नीचे के देवेन्द्र आदर सम्मान करते हैं। शक्र का सौधर्मावतंसक महाविमान एवं ईशान का ईशानावतंसक महाविमान साढ़े बारह लाख योजन लम्बा-चौड़ा है। शक की सुधर्मा सभा सौधर्मावतंसक महाविमान में तथा ईशानेन्द्र की सुधर्मा सभा ईशानावतंसक महाविमान में कही गई है। ये दोनों इन्द्र महा ऋद्धिशाली यावत् महासुख वाले हैं। शक्र के जो चार लोकपाल सोम, यम, वरुण एवं वैश्रमण हैं उनके विमानों के नाम क्रमशः सन्ध्याप्रभ, वरशिष्ट, स्वयंज्चत एवं वल्गु हैं तथा ईशानेन्द्र के जो चार लोकपाल सोम, यम, वैश्रमण एवं वरुण हैं उनके विमानों के नाम क्रमशः सुमन, सर्वतोभद्र, वल्गु एवं सुवल्गु हैं। इन लोकपालों के ये विमान कहाँ हैं, कितने बड़े हैं, इनके अधीनस्थ कौन-से देव हैं आदि तथ्यों का भीतर अध्ययन में विस्तार से वर्णन है। इन लोकपालों के विभिन्न देव अपत्य रूप से भी अभीष्ट माने गए हैं। इनकी स्थिति का भी अध्ययन में निर्देश हुआ है।
शक्र, ईशान, सनत्कुमार आदि जो वैमानिक देवेन्द्र हैं उनमें शक्रादि प्रथम, तृतीय, पंचम आदि देवेन्द्र दक्षिण दिशावर्ती हैं तथा ईशान आदि द्वितीय, चतुर्थ आदि देवेन्द्र उत्तर दिशावर्ती हैं। इन समस्त देवेन्द्रों की सेनाएँ सात प्रकार की कही गई हैं, यथा-१. पदातिसेना, २. अश्वसेना, ३. हस्तिसेना, ४. वृषभसेना, ५. रथसेना, ६. नाट्यसेना एवं ७. गन्धर्वसेना। इन सेनाओं के सेनापतियों के नाम प्रत्येक देवलोक में भिन्न हैं। उदाहरण के लिए शक्र की पदातिसेना का सेनापति हरिणगमैषी है तो ईशान की पदातिसेना का सेनापति लघुपराक्रम है। शक्र के समान ही सनत्कुमार से लेकर आरण कल्प पर्यन्त के दक्षिण दिशावर्ती इन्द्रों की सात सेनाओं एवं सेनापतियों के नाम हैं तथा ईशान के समान माहेन्द्र से लेकर अच्युत पर्यन्त उत्तर दिशावर्ती इन्द्रों की सेनाओं एवं सेनापतियों के नाम हैं। पदातिसेना की प्रथम कक्षा में किस इन्द्र के कितने देव हैं, इसकी संख्या का उल्लेख भी यथाप्रसंग भीतर उपलब्ध है।
अनुत्तरौपपातिक देवों, लवसप्तम देवों एवं हरिणगमैषी देवों का इस अध्ययन में विशिष्ट निरूपण हुआ है। अनुत्तरौपपातिक देवों के लिए कहा गया है कि ये देव अनुत्तर (श्रेष्ठ) शब्द यावत् स्पर्श का अनुभव करने के कारण अनुत्तरौपपातिक कहे गए हैं। श्रमण निर्ग्रन्थ षष्ठ भक्त प्रत्याख्यान अर्थात् बेले की तपस्या के द्वारा जितने कर्मों की निर्जरा करते हैं उतने कर्म शेष रहने पर अनुत्तरौपपातिक देव रूप में उत्पत्ति होती है। ये देव उपशान्त मोह होते हैं, क्षीण मोह एवं उदीर्ण मोह नहीं होते। इनके अनन्त मनोद्रव्य वर्गणाएँ मानी गई हैं जिनसे ये तीर्थंकरों की बात को जानते-देखते हैं। जिन मनुष्यों का आयुष्य मात्र सात लव शेष रहने पर देवगति प्राप्त हो जाती है उन्हें लवसप्तम देव कहा गया है। ये यदि सात लव और जीते तो उसी भव में मोक्ष में जा सकते थे। हरिणगमैषी देव शक्रेन्द्र का दूत माना गया है। इसी नाम का सेनापति भी होता है। यह हरिणगमैषी देव गर्भ हरण की क्रिया करते समय गर्भ को एक गर्भाशय से उठाकर दूसरे गर्भाशय में नहीं रखता, योनि द्वारा दूसरी स्त्री के उदर में नहीं रखता, योनि से गर्भ को निकालकर दूसरी स्त्री की योनि में नहीं रखता अपितु गर्भ को स्पर्श करके बिना कष्ट दिए ही एक स्त्री की योनि से निकालकर उसे दूसरी स्त्री के गर्भाशय में पहुँचा देता है। जो देव दूसरे को पीड़ा आदि दिए बिना ही विक्रिया आदि करते हैं उन्हें अव्याबाध देव कहा गया है।
महर्द्धिक देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके तिरछे पर्वत आदि को लाँघ सकते हैं, किन्तु बाह्य पुद्गल ग्रहण किए बिना वे ऐसा नहीं कर सकते। महर्द्धिक देव अल्पर्द्धिक देवों के मध्य से होकर जा सकता है। वह उसे पहले या पश्चात् विमोहित करके भी जा सकता है तथा बिना विमोहित किए भी जा सकता है। किन्तु अल्पर्द्धिक देव महर्द्धिक देवों के बीच से किसी भी प्रकार नहीं जा सकता। समान ऋद्धि वाले (समर्द्धिक) देव समर्द्धिक देवों के बीच से उनके प्रमत्त होने पर ही जा सकते हैं अन्यथा नहीं जा सकते। वे अपने समान ऋद्धि वाले देवों को पहले विमोहित करते हैं, विमोहित किए बिना वे उनके बीच से नहीं जा सकते। यह नियम सभी देवों में लागू होता है। सब एक-दूसरे की तुलना में अल्पर्द्धिक, समर्द्धिक या महर्द्धिक होते हैं। देवियों के बीच से जब कोई देव निकलता है तो उसमें भी उपर्युक्त नियम लागू होते हैं अर्थात् अल्पर्द्धिक देव महर्द्धिक देवी के बीच से नहीं निकल सकता, समर्द्धिक देव समर्द्धिक देवी के बीच से तभी निकल सकता है जब देवी प्रमत्त हो। महर्द्धिक देव अल्पर्धिक देवियों के बीच से निकल सकता है। इसी प्रकार अल्पर्द्धिक देवी महर्द्धिक देवों के बीच से नहीं निकल सकती आदि कथन समान हैं। अल्पर्द्धिक देवी महर्द्धिक देवियों के बीच से भी नहीं निकल सकती, समर्द्धिक देवियों के बीच से समर्द्धिक देवी उनके अप्रमत्त होने पर निकल सकती है तथा महर्द्धिक देवी अल्पर्द्धिक देवियों के मध्य से निकल सकती है। महर्द्धिक देवी अल्पर्द्धिक देवों के बीच से निकल सकती है। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के चौदहवें शतक में समर्द्धिक देवों के समर्द्धिक देवों के बीच से निकलने के पूर्व शस्त्र प्रहार करने की बात कही गई है।
एक अपेक्षा से देव दो प्रकार के होते हैं-१. मायी मिथ्यादृष्टि, २. अमायी सम्यग्दृष्टि। मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक देव भावितात्मा अनगार को देखकर भी उन्हें वन्दन-नमस्कार एवं सत्कार-सम्मान नहीं देता वह भावितात्मा अनगार के मध्य से निकल जाता है, किन्तु अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्त्रक देव भावितात्मा अनगार को देखकर वन्दन, नमस्कार, सत्कार, सम्मान आदि करके पर्युपासना करता है। वह उनके बीच से नहीं निकलता।
देव अपनी शक्ति से चार-पाँच देववासों के अन्तरों का उल्लंघन कर सकते हैं, किन्तु इसके पश्चात् वे परशक्ति द्वारा ऐसा कर सकते हैं।
देवों की स्थिति, लेश्या, योग, उपयोग आदि की जानकारी के लिए तत्तद् अध्ययनों की विषय-सामग्री द्रष्टव्य है। इस अध्ययन में देवों के सम्बन्ध में विविध प्रकार का निरूपण देवों की विशेषताओं को भली प्रकार स्पष्ट कर देता है।
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