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देव गति अध्ययन
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उ. गोयमा ! अणंताहिं ओसप्पिणीहि अणंताहिं उस्सप्पिणीहिं,
अस्थि णं एस भावे लोयच्छेसयभूए समुप्पज्जइ जं णं
असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो। प. किं निस्साए णं भंते ! असुरकुमारा देवा उड्ढे उप्पयंति
जाव सोहम्मो कप्पो? उ. गोयमा ! से जहानामए इह सबरा इ वा, बब्बरा इ वा,
टंकणा इवा, चुच्चुया इ वा, पल्हया इ वा, पुलिंदा इ वा, एगं महं रण्णं वा, गड्ढं वा, दुग्गं वा, दुरिं वा, विसमं वा, पव्वयं वा णीसाए सुमहल्लमवि आसबलं वा, हत्थिबलं वा, जोहबलं वा, धणुबलं वा आगलति। एवामेव असुरकुमारा वि देवा णऽन्नत्थ अरहंते वा, अणगारे वा भावियप्पणो निस्साए उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो।
प. सव्वे वि णं भंते ! असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव
सोहम्मो कप्पो? उ. गोयमा ! णो इणढे समढे। महिड्ढिया णं असुरकुमारा
देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो। प. एस वि य णं भंते ! चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया उड्ढे
उप्पत्तिय पुव्वे जाव सोहम्मो कप्पो? उ. हंता, गोयमा ! एस वि य णं चमरे असुरिंदे असुरराया
उड्ढं उप्पत्तियपुब्वे जाव सोहम्मो कप्पो। प. अहो णं भंते ! चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया महिड्ढीए
महज्जुईए जाव कहिं पविट्ठा ? | उ. गोयमा ! कूडागारसालादिट्ठतो भाणियव्यो।
-विया. स.३, उ.२,सु. १४-१८ १३. पण्णरस विसिट्ठ असुरकुमार परमाहम्मिय देव णामाणि
पण्णरस परमाहम्मिआ पण्णत्ता,तं जहाअंबे अंबरिसी चेव, सामे सबलेत्ति यावरे। रुद्दोवरुद्दकाले य, महाकालेत्ति यावरे॥ असिपत्ते धणु कुम्भे, बालुए वेयरणीति य। खरस्सरे महाघोसे, एए पण्णरसाहिआ॥
-सम. सम.१५, सु.१ १४. अंतोमणुस्सखेत्ते जोइसियाणं देवाणं उड्ढोववण्णगाइ
परूवणंप. अंतो णं भंते ! माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिम
सूरिअ-गहगण-णक्खत्त-तारारूवा णं भन्ते ! देवा किं उड्ढोववण्णगा, कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णग्गा चारविईआ गइरइआ गइसमावण्णगा?
उ. गौतम ! अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणीकाल के व्यतीत होने के
पश्चात् लोक में यह आश्चर्य समुत्पन्न होता है कि असुरकुमार
देव ऊर्ध्व गमन करते हैं यावत् सौधर्मकल्प पर्यन्त जाते हैं। प्र. भंते ! किसका आश्रय लेकर असुरकुमार देव ऊर्ध्व गमन
करते हैं यावत् सौधर्मकल्प पर्यन्त जाते हैं ? उ. गौतम ! जिस प्रकार यहाँ (मनुष्यलोक में) शबर, बर्बर, टंकण, चुच्चुक, प्रश्नक या पुलिन्द्र जाति के लोग किसी बड़े वन, गड्ढे, दुर्ग, गुफा, ऊबड़-खाबड़ प्रदेश या पर्वत का आश्रय लेकर एक महान् व्यवस्थित अश्ववाहिनी, गजवाहिनी, पैदल सेना या धनुर्धारियों को आकुल-व्याकुल कर देते हैं। इसी प्रकार असुरकुमार देव अरिहन्त का या भावितात्मा अनगार का आश्रय लेकर ऊर्ध्वगमन करते हैं
और सौधर्मकल्प पर्यन्त ऊपर जाते हैं। प्र. भंते ! क्या सभी असुरकुमार देव सौधर्मकल्प पर्यन्त
ऊर्ध्वगमन करते हैं? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। किन्तु महर्द्धिक असुरकुमार
देव सौधर्म देवलोक पर्यन्त ऊपर जाते हैं। प्र. भंते ! क्या असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर पहले कभी ऊपर
सौधर्मकल्प पर्यन्त ऊर्ध्वगमन कर चुका है ? उ. हाँ, गौतम ! यह असुरेन्द्र असुरराज चमर पहले सौधर्मकल्प ___पर्यन्त ऊर्ध्वगमन कर चुका है।
प्र. अहो भंते ! असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसा महाऋद्धि एवं ___महाद्युति वाला है यावत् दिव्य देवप्रभाव कहाँ प्रविष्ट हो गया? उ. गौतम ! यहाँ भी कुटाकारशाला का दृष्टान्त कहना चाहिए।
(उसके अनुसार वह उसके शरीर में प्रविष्ट हो गयी।) १३. पन्द्रह विशिष्ट असुरकुमार परमाधार्मिक देवों के नाम
पन्द्रह परमाधार्मिक देव कहे गए हैं, यथा१. अंब, २. अंबरिष, ३. श्याम, ४. शबल, ५. रौद्र, ६. उपरौद्र, ७. काल, ८. महाकाल, ९. असिपत्र, १०. धनु, ११. कुंभ, १२. वालुका,
१३. वैतरणी, १४. खरस्वर, १५. महाघोष। १४. अन्तर्वर्ती मनुष्य क्षेत्र में ज्योतिष्कों के ऊोपपन्नकादि का
प्ररूपणप्र. भंते ! मानुषोत्तर पर्वत के अंतरवर्ती चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र
और तारा रूप ज्योतिष्क देव क्या ऊोपपन्नक (सौधर्मादि विमानों से ऊपर उत्पन्न होने वाले हैं? विमानोपपन्नक (ज्योतिष्क विमानों में उत्पन्न होने वाले) है? कल्पोपपन्नक (सौधर्मादि कल्पों में उत्पन्न होने वाले) हैं? चारोपपत्रक (परिभ्रमण करने वाले) हैं, चारस्थितिक हैं, गतिरतिक हैं या
गति समापन्नक हैं? उ. गौतम ! मानुषोत्तर पर्वतवर्ती चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और
तारा रूप ज्योतिष्क देव ऊोपपन्नक नहीं हैं, कल्पोपपन्नक नहीं हैं, वे विमानोत्पन्नक हैं, चारोपपन्नक हैं, चारस्थितिक नहीं हैं, गतिरतिक हैं और गतिसमापन्नक हैं।
उ. गोयमा ! अंतो णं माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चन्दिम
सूरिअ-गहगण-णक्वत्त-तारा रूवे ते णं देवा णो उड्ढोववण्णगा, णो कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, णो चारट्ठिईआ, गइरइआ, गइसमावण्णगा।