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३. अजुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, ४. अजुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता,तं जहा१. जुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, २. जुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे, ३. अजुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, ४. अजुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे। (४) चत्तारि गया पण्णत्ता,तं जहा१. जुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे, २. जुत्ते णाममेगे अजुत्तसोभे, ३. अजुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे, ४. अजुत्ते णाममेगे अजुत्तसोभे। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता,तं जहा१. जुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे, २. जुत्तेणाममेगे अजुत्तसोभे, ३. अजुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे,
४. अजुत्ते णाममेगे अजुत्तसोभे। -ठाणं. अ. ४, उ. ३, सु. ३१९ ७५. भद्दाइ चउव्विह हत्थी दिट्ठतेण पुरिसाणं चउभंग परवणं
(१) चत्तारि हत्थी पण्णत्ता,तं जहा१. भद्दे, २. मंदे, ३. मिए, ४. संकिन्ने, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता,तं जहा१. भद्दे, २. मंदे, ३. मिए, ४. संकिन्ने। मधुगुलिय-पिंगलक्खो अणुपुव्व-सुजाय-दीहणंगूलो। पुरओ उदग्गधीरो सव्वंगसमाहिओ भद्दो।
द्रव्यानुयोग-(२) ३. कुछ हाथी अयुक्त होकर युक्त रूप वाले होते हैं, ४. कुछ हाथी अयुक्त होकर अयुक्त रूप वाले होते हैं। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. कुछ पुरुष युक्त होकर युक्त रूप वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष युक्त होकर अयुक्त रूप वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अयुक्त होकर युक्त रूप वाले होते हैं, ४. कुछ पुरुष अयुक्त होकर अयुक्त रूप वाले होते हैं। (४) हाथी चार प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. कुछ हाथी युक्त होकर युक्त शोभा वाले होते हैं, २. कुछ हाथी युक्त होकर अयुक्त शोभा वाले होते हैं, ३. कुछ हाथी अयुक्त होकर युक्त शोभा वाले होते हैं, ४. कुछ हाथी अयुक्त होकर अयुक्त शोभा वाले होते हैं। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. कुछ पुरुष युक्त होकर युक्त शोभा वाले होते हैं, २. कुछ पुरुष युक्त होकर अयुक्त शोभा वाले होते हैं, ३. कुछ पुरुष अयुक्त होकर युक्त शोभा वाले होते हैं,
४. कुछ पुरुष अयुक्त होकर अयुक्त शोभा वाले होते हैं। ७५. भद्रादि चार प्रकार के हाथियों के दृष्टान्त द्वारा पुरुषों के
चतुर्भगों का प्ररूपण(१) हाथी चार प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. भद्र-धैर्य आदि गुणयुक्त, २. मंद-धैर्य आदि गुणों में मंद, ३. मृग-भीरु (डरपोक), ४. संकीर्ण-विविध स्वभाव वाला। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. भद्र, २. मंद, ३. मृग, ४. संकीर्ण। १. जिसकी आँखे मधु गुटिका के समान भूरापन लिए हुए लाल
होती है, जो उचित काल-मर्यादा से उत्पन्न हुआ है, जिसकी पूंछ लम्बी है, जिसका अगला भाग उन्नत है, जो धीर है, जिसके सब अंग प्रमाण और लक्षणों से युक्त होने के कारण
सुव्यवस्थित हैं, उस हाथी को 'भद्र' कहा जाता है। २. जिसकी चमड़ी शिथिल, स्थूल और वलियों (रेखाओं) से युक्त
होती है, जिसका सिर और पूंछ का मूल स्थूल होता है, जिसके नख, दांत और केश स्थूल होते हैं तथा जिसकी आँखें सिंह की तरह भूरापन लिए हुए पीली होती हैं, उस हाथी को "मंद"
कहा जाता है। ३. जिसका शरीर, गर्दन, चमड़ी, नख, दांत और केश पतले होते
हैं, जो भीरु, त्रस्त और उद्विग्न होता है तथा जो दूसरों को
त्रास देता है उस हाथी को "मृग" कहा जाता है। ४. जिसमें हस्तियों के पूर्वोक्त गुण, रूप और शील के लक्षण मिश्रित रूप में मिलते हैं उस हाथी को 'संकीर्ण' कहा जाता है। भद्र शरद ऋतु में, मंद बसंत ऋतु में, मृग हेमन्त ऋतु में और संकीर्ण सब ऋतुओं में मदोन्मत्त होते हैं।
चल-बहल-विसम-चम्मो थुल्लसिरोथूलणह पेएण। थूलणह-दंत-वालो हरिपिंगल-लोयणो मंदो।
तणुओ तणुयग्गीवो तणुयतओ तणुयदंत-णह-वालो। भीरु तत्थुव्विग्गो तासीय भवे मिए णामं॥
एएसिं हत्थीणं थोवाथोवंतु,जो अणुहरइ हत्थी। रूवेण व सीलेण व सो,संकिन्नो त्तिणायव्यो॥ भद्दो मज्जइ सरए, मंदो पुण मज्जए वसंतम्मि। मिओ मज्जइ हेमंते, संकिन्नो सव्वकालम्मि॥
-ठाणं.अ.४, उ.२,सु.२८१,गा.१-५