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४६. ताल-तमालाईणं मूल-कंदाइजीवेसु उववायाइ परूवणं
रायगिहे जाय एवं क्यासि
प. अह भंते ! ताल तमाल तक्कलि-तेतलि साल सरला-सारगल्लाणं जाव केयइ-कयलि कंदलि चम्मरुक्ख गुंतरुक्ख हिंगुरुक्ख, लवंगुरुक्ख पूयफलि खजूरि नालिएरीण एएसि णं जे जीवा मूलताएं वक्कमति ते णं भंते! जीवा कओहिंतो उववज्जति ?
उ. गोयमा ! एत्थ वि मूलाईया दस उद्देसगा कायच्या जहेब सालीणं ।
णवरं इमं नाणत्तं मूले कंदे संधे तयाए साले व एएस पंचसु उद्देसगेसु देवो न उववज्जंति, तिण्णि लेसाओ, ठिई जहन्त्रेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दसवाससहस्साइं । उवरिल्लेसु पंचसु उद्देसगेसु देवा उववज्जति,
चत्तारि लेसाओ, ठिई-जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वासपुहत्तं,
ओगाहणा मूले कंदे धणुपुहत्तं,
खंधे तयाए साले व गाउयपुहत्तं,
पवाले पत्ते य धणुपुहतं,
पुप्फे हत्थपुहत्तं,
फले बीए व अंगुलपुहतं सव्वेसि जहणेणं अंगुलस्स असज्जड भागं ।
सेसे जहा सालीणं ।
एवं एए दस उद्देसगा।
- विया. स. २२, व. १, सु. २-३ ४७. निबंबाईनं मूलकंदाइ जीयेसु उववायाइ परूवणं
प. अह भंते! निबंब- जंबु कोसंब-ताल-अंकोल्ल-पील सेलू सल्लइ-मोयइ-मालय-बउल- पलास करंज पुत्तंजीवगऽरिट्ठ- विहेलग-हरियन-भल्लाय उंबरिय-खीरणि धायइ पियाल पूय णिवाम सेव्हण पासिय सीसय अयसि पुत्राग नागरुक्ख सोवण्णि असोगाणं एएसि णं जे जीवा मूलताए वक्कमति ते णं भंते । जे जीवा कओहिंतो उववज्जति ?
उ. गोयमा ! एवं मूलाईया दस उद्देसगा कायव्वा णिरवसेसं जहा तालवग्गे । -विया. स. २२, व. २, सु. १ ४८. अत्थिआईणं मूलकंदाइ जीवेसु उववायाइ परूवणं
प. अह भंते ! अत्थि तेंदुय बोर कविट्ठ-अबाहगमाउलुंग बिल्ल आमलग-फणस दाडिम आसोत उंबर वड णग्गोह- नंदिरुक्ख पियलि सतर रुक्ख-काउंबरिय कुत्युंभरिय देवदालि
पिलखुतिलग
द्रव्यानुयोग - (२)
४६. ताल तमाल आदि के मूल कंदादि जीवों में उत्पातादि का
प्ररूपण
राजगृह नगर में गौतम ! स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा
प्र. भंते ! ताल (ताड़) तमाल, तक्कली, तेतली, शाल, सरल, (देवदार) सारगल्ल यावत् केतकी (केवड़ी) कदली (केला) कदली, धर्मवृक्ष, गुन्दवृक्ष, हिंगुवृक्ष, लवंगवृक्ष, पूगफल, (सुपारी) खजूर और नारियल इन सबके मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं तो भंते! वे कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम! शालिवर्ग मूलादि के दस उद्देशकों के समान यहां भी वर्णन करना चाहिए।
विशेष- इन वृक्षों के मूल, कन्द, स्कंध, त्वचा और शाखा इन पांचों अवयवों में देव आकर उत्पन्न नहीं होते। इन में तीन लेश्याएं होती है और स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की होती है। शेष अन्तिम उद्देशकों में देव उत्पन्न होते हैं।
उनमें चार लेश्याएं होती है और स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट वर्ष पृथक्त्व की होती है।
मूल और कन्द की अवगाहना धनुष पृथक्त्व की,
स्कन्ध त्वचा एवं शाखा की गव्यूति पृथक्त्व की
प्रवाल और पत्र की अवगाहना धनुष पृथक्त्व की, पुष्प की अवगाहना हस्तपृथक्त्व की,
फल और बीज की अवगाहना अंगुल पृथक्त्व की होती है। इन सबकी जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है।
शेष सब कथन शालिवर्ग के समान जानना चाहिए। इस प्रकार ये दस उद्देशकों का कथन है।
४७. नीम आम आदि के मूल कंदादि जीवों में उत्पातादि का
प्ररूपण
प्र. भन्ते ! नीम, आम्र, जम्बू (जामुन), कोशम्ब, ताल, अंकोल, पीलू, सेलू, सल्लकी, मोचकी, मालुक, बकुल, पलाश, करंजु, पुत्रजीवक, अरिष्ट (अरीठा), बहेड़ा, हरितक (हरडे) भिल्लामा, उम्बरिया, क्षीरणी, (खिरनी) धातकी, (धावड़ी) प्रियाल (चारोली) पूतिक, निवाग, (नीपाक) सेण्हक, पासिय, शीशम, अतसी पुत्राग (नागकेसर) नागवृक्ष, श्रीपर्णी और अशोक इन सब वृक्षों के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, तो भंते! वे कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ?
उ. गौतम ! यहाँ भी तालवर्ग के समान समग्र रूप से मूलादि के दस उद्देशक कहने चाहिए।
४८. अस्थिक आदि के मूल कंवादि जीवों में उत्पातादि का प्ररूपण
प्र. भन्ते अस्थिक, तिन्दुक, बोर, कवी, अम्बाडक, बिजौरा, बिल्व (बेल), आमलक बड़ न्यग्रोध ( आंवला) फणस (अनन्नास) दाड़िम (अनार) अश्वत्थ (पीपल) उंबर ( उदुम्बर) बड़ न्यग्रोध नदिवृक्ष, पिपति, सतर पिलक्षवृक्ष, काकोदुबरिया, कुस्तुम्भरिय, देवदालि, तिलक,