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महुपुयलइ-महुसिंगणेरूहा
सम्पसुगंधा ਇਕ बीयरूहाणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वकमति ते भंते! जीवा कओहिंतो उववज्जंति ?
उ. गोयमा ! एवं मूलाईया दस उद्दसेगा कायव्या वसवग्ग सरिसा,
णवरं परिमाणं जहणेण एको वा दो वा, तिष्णि वा उक्कोसेणं सखेज्जा वा, असंखेज्जा वा अणंता वा उववज्जति,
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अवहारो
गोयमा ! तेणं अणंता, समए- समए अवहीरमाणाअवहीरमाणा अणताहं ओसपिणि उस्सप्पिणीहिं एवइकालेणं, अवहीरंति नो चेव णं अवहिया सिया, टिई जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्त । सेतं चैव । - विया. स. ३३, व. १, सु. १-४ ५३. लोही आईणं मूल कंदाइजीयेसु उबवायाइ परूवणंप. अह भंते ! लोही नीड़ थी- श्रीभगा अस्सकण्णीसीहकण्णी-सीउंडी मुलुंडीर्ण एएसि णं जे जीवा मूलताए वक्कमंति, ते णं भंते! जीवा कओहिंतो उववज्जंति ?
उ. गोयमा ! एत्थ वि दस उद्देसगा जहेव आलुवग्गे ।
णवरं - ओगाहणा तालवग्ग सरिसा, सेसं तं चेव ।
-विया. स. २३, व. २, सु. १ ५४. आप कायाईणं मूल कंदाइजीवेसु उपवायाइ पत्रवणंप. अह भन्ते । आय-काय कुरुण कुंदुक्क उच्चेहलियसफासज्झा छत्ता साणिय कुराणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो उववज्जति ?
उ. गोयमा ! एत्य वि मूलाईया दस उद्देसगा निरवसेसं जहा आलुवग्गे । -विया. स. २३, व. ३, सु. १ ५५. पाढाईण मूलकंदाइजीवेसु उबवायाइ परूवणं
प. अह भन्ते ! पाढा -मियवालुंकि मधुररस रायवल्लि पउम मोरि-ति-चंडीण, एएसि ण जे जीवा मूलताए वक्कमति ते णं भंते! जीवा कओहिंतो उववज्जति ?
उ. गोयमा ! एत्थ वि मूलाईया दस उद्देसगा आलुय वग्गसरिया ।
णवरं - ओगाहणा जहा वल्लीणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जगुणइ भागं उक्कोसेणं धणुपुहत्तं ।
सेतं चैव। -विया. स. २३, व. ४, सु. १ ५६. मासपण्णी आई मूल कंदाइजीयेसु उबवायाइ परूवणंप. अह भंते! मासपण्णी मुग्गपण्णी जीवग सरिसवकरेणुया का ओलि खीरका ओलिभगि-गहिं किमिरासि
द्रव्यानुयोग - (२)
मधु पयल, मधुगी निरूहा, सर्पगन्धा, छिन्नारूहा और बीजरूहा, इन सब (साधारण) वनस्पतियों के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते है तो भन्ते ! वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ?
उ. गौतम ! यहाँ वंश वर्ग के समान मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिए।
विशेष- इनका परिमाण जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं।
अपहार
गौतम ! वे अनन्त हैं यदि प्रति समय में एक-एक जीव का अपहार किया जाए तो अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी जितने काल में अपहरण हो सकता है किन्तु उनका अपहार नहीं हुआ है। उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की होती है। शेष सब कथन पूर्ववत् है ।
५३. लोही आदि के मूल कंदादि जीवों में उत्पातादि का प्ररूपणप्र. भन्ते ! लोही, नीहू, थीहू, थीभगा, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी,
सीढी और मुसुढी इन सब वनस्पतियों के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते है तो भन्ते ! वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ?
उ. गौतम ! आलुकवर्ग के समान यहाँ भी मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिए।
विशेष- इनकी अवगाहना तालवर्ग के समान है। शेष सब कथन पूर्ववत् है ।
५४. आय कायादि के मूल कंदादि जीवों में उत्पातादि का प्ररूपणप्र. भन्ते ! आय, काय, कुहणा, कुन्दुक्क, उव्वहेलिय, सफा,
सज्झा, छत्ता, वंशानिका और कुरा इन वनस्पतियों के मूल रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं तो भन्ते ! वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं?
उ. गौतम ! यहाँ भी आलु वर्ग के समान मूलादि समग्र दस उद्देशक कहने चाहिए।
५५. पाठादि के मूल कंदादि जीवों में उत्पातादि का प्ररूपण
प्र. भन्ते ! पाठा, मृगवालुंकी, मधुररसा राजवल्ली पद्मा मोढरी, दन्ती और चण्डी, इन सब वनस्पतियों के मूल रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं तो भंते! वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ?
उ. गौतम ! यहाँ भी आलुवर्ग के मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिए।
विशेष - अवगाहना वल्लीवर्ग के समान जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट धनुष पृथक्त्व समझनी चाहिए।
शेष सब कथन पूर्वत् है ।
५६. माषपर्णी आदि के मूल कंदादि जीवों में उत्पातादि का प्ररूपणप्र. भन्ते माषपर्णी, मुद्गपर्णी, जीवक, सरिसव करेणुका, काकोली, क्षीरकाकोली, भंगी, शाही, कृमिराशि,