________________
१२६६
प. २.तेसिणं भंते ! जीवाणं कइ लेस्साओ पन्नत्ताओ?
उ. गोयमा ! चत्तारिलेस्साओ पन्नत्ताओ,तं जहा
१. कण्ह लेस्सा, २. नीललेस्सा,
३. काउलेस्सा, ४. तेउलेस्सा। प. ३. ते णं भंते ! जीवा किं सम्मद्दिट्टी, मिच्छद्दिट्ठी,
सम्मामिच्छद्दिट्ठी? उ. गोयमा ! नो सम्मद्दिट्ठी, मिच्छद्दिट्ठी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी।
द्रव्यानुयोग-(२) प्र. २. भंते ! उन (पृथ्वीकायिक) जीवों के कितनी लेश्याएं कही
गई हैं? उ. गौतम ! उनमें चार लेश्याएं कही गई हैं, यथा
१. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या,
३. कापोतलेश्या, ४. तेजोलेश्या। प्र. ३. भन्ते ! वे जीव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं या
सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं? उ. गौतम ! वे जीव सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं हैं
किन्तु मिथ्यादृष्टि हैं, प्र. ४. भन्ते ! वे जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? उ. गौतम ! वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी हैं, उनमें दो अज्ञान
निश्चितरूप से पाए जाते हैं, यथा
१. मति अज्ञान, २. श्रुत अज्ञान। प्र. ५. भन्ते ! क्या वे जीव मनोयोगी हैं, वचनयोगी हैं या
कायायोगी हैं? उ. गौतम ! वे मनोयोगी नहीं हैं और वचनयोगी नहीं हैं, किन्तु
काययोगी हैं। प्र. ६.भन्ते ! वे जीव साकारोपयोगी हैं या अनाकारोपयोगी हैं ?
प. ४.ते णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी? उ. गोयमा ! नो नाणी अन्नाणी, नियमा दुअन्नाणी,तं जहा
१. मइअन्नाणी य, २. सुयअन्नाणी य। प. ५. ते णं भंते ! जीवा किं मणजोगी, वइजोगी,
कायजोगी? उ. गोयमा ! नो मणजोगी, नो वइजोगी,कायजोगी।
'प. ६. ते णं भंते ! जीवा किं सागारोवउत्ता, __अणागारोवउत्ता? उ. गोयमा ! सागारोवउत्ता वि,अणागारोवउत्ता वि। प. ७ (क) तेणं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेंति? उ. गोयमा ! दव्वओ अणंतपएसियाइं दव्वाई,
एवं जहा पन्नवणाए पढमे आहारुद्देसए जाव' सव्वप्पणयाए आहारमाहारेंति।
प. (ख) ते णं भंते ! जीवा जं आहारेंति तं चिज्जइ, जं नो
आहारेति तं नो चिज्जइ, चिण्णे वा से उद्दाइ पलिसप्पइ
वा?
उ. गौतम ! वे साकारोपयोगी भी हैं और अनाकारोपयोगी भी हैं। प्र. ७ (क) भन्ते ! वे (पृथ्वीकायिक) जीव क्या आहार करते हैं ? उ. गौतम ! वे द्रव्य से-अनन्तप्रदेशी द्रव्यों का आहार करते हैं,
इत्यादि वर्णन प्रज्ञापनासूत्र (२८वें पद के) प्रथम आहारोद्देशक के अनुसार सर्व आत्मप्रदेशों से आहार करते हैं पर्यन्त जानना
चाहिए। प्र. (ख) भन्ते ! वे जीव जो आहार करते हैं, क्या उसका चय होता
है और जिसका आहार नहीं करते क्या उसका चय नहीं होता? जिस आहार का चय हुआ है, वह आहार (असार भाग रूप में) बाहर निकलता है? या सार रूप भाग (शरीर
इन्द्रियादि) रूप में परिणत होता है? उ. गौतम ! वे जो आहार करते हैं, उसका चय होता है और जिसका आहार नहीं करते हैं उसका चय नहीं होता, जिस
आहार का चय हुआ है उसका (असार भाग) बाहर निकलता है और सारभाग शरीर इन्द्रियादिरूप में परिणत होता है। प्र. (ग) भन्ते ! उन जीवों का हम आहार करते हैं, ऐसी संज्ञा,
प्रज्ञा, मन और वचन होते हैं ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है फिर भी वे आहार तो
करते हैं। प्र (घ) भन्ते ! क्या उन जीवों को यह संज्ञा प्रज्ञा मन और वचन
होता है कि हम इष्ट या अनिष्ट स्पर्श का अनुभव करते हैं?
उ. हता, गोयमा ! ते णं जीवा जं आहारेंति तं चिज्जइ, जं नो
आहारेंति तं नो चिज्जइ, चिण्णे वा से उद्दाइ पलिसप्पइ वा।
प. (ग) तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सन्नाति वा, पन्नाति वा,
मणाति वा, वयीति वा अम्हे णं आहारमाहारेमो? उ. गोयमा ! णो इणढे समटे,आहारेंति पुण ते।
प. (घ) तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सन्ना ति वा, पण्णा ति वा,
मणाति वा वयीति वा अम्हे णं इट्ठाणिढे फासे
पडिसंवेदेमो? उ. गोयमा ! नो इणढे समढे, पडिसंवेदेति पुण ते।
उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है फिर भी वे वेदन तो
करते ही हैं।
१. आहार अध्ययन में देखें।