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तिर्यञ्च गति अध्ययन
सेमं तं चैव
एवं दिया वि एवं चउरिदिया थि
वरं इंदिएस ठिई एय । सेवं तं चैव
-विया. स. २०, उ. १, सु. ३-६
१३. लेस्साइ बारस दाराणं पंचेंदियजीवेसु परूवणंप. सिय भंते जाव चत्तारि पंच पंचेदिया एगयओ साहारण सरीर बंधति बघित्ता तओ पच्छा आहारैति वा परिणामेंति वा, सरीरं वा बंधंति ?
उ. गोवमा ! जहा बेइंद्रियाणं ।
णवरं-छ लेस्साओ, दिट्ठी तिविहा वि, चत्तारि नाणा, तिण्णि अण्णाणा भयणाए तिविहो जोगो ।
प. तैसि णं भंते जीवाणं एवं सन्ना ति वा पण्णा ति वा, मणे तिबा, बयी ति वा अम्हे णं आहारमाहारेमो ?
उ. गोयमा ! अत्थेगइयाणं एवं सण्णा ति वा, पण्णा ति वा, मणो ति वा, वयी ति वा अम्हे णं आहारमाहारेमो, अत्येगइयाणं नो एवं सन्ना ति वा जाब दयी ति वा अम्हे णं आहारमाहारेमी, आहारैति पुण ते
प. तेसि णं भंते! जीवाणं एवं सन्ना ति या जाव चयी ति वा, अम्हे णं इट्ठाणि सद्दे, इट्ठाणिट्ठे रूवे, इट्ठाणिट्टे गंधे, इट्ठाण रसे, इट्टाणिट्ठे फासे पडिसंवेदेमो ?
उ. गोयमा ! अत्थेगइयाणं एवं सन्ना ति वा जाव वयी ति वा, अम्हे णं इद्वाणि सद्दे जाव इट्टाणिडे फासे पडिसंवेदेमो, अल्येगइयाण नो एवं सण्णाति वा जाब नो एवं वयी ति वा, अम्हे णं इट्ठाणिट्टे सद्दे जाव इट्ठाणिट्ठे फासे पडिसंवेदेमो पडिसंवेदेति पुण ते
प. ते णं भंते! जीवा किं पाणाइवाए उवक्खाइज्जति जाव मिच्छादंसणसल्ले उबवखाइज्जति ?
उ. गोयमा अत्येगइया पाणाइवाए वि उवखाइज्जति जाव मिच्छादंसणसल्ले वि उवक्वाइज्जति अत्येगइया नो पाणाड्याए उचक्रवाइज्जति जाय नो मिच्छादंसणसल्ले उवक्खाइज्जति। जेसिं पिणं जीवाणं ते जीवा एवमाहिज्जति तेसिं पि णं जीवाणं अत्थेगइयाणं विन्नाए नाणते, अत्येगइयाणं नो विन्नाए नाणते।
उबवाओ सव्यओ जाव सव्यसिद्धाओ
टिई जत्रेण अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोदमाई । छस्समुग्धाया केवलिया ।
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शेष सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिए।
इसी प्रकार श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के लिए भी जानना चाहिए।
विशेष- इनकी इन्द्रिय और स्थिति में अन्तर है। शेष सब कथन पूर्ववत् है ।
१३. लेश्यादि बारह द्वारों का पंचेन्द्रिय जीवों में प्ररूपण
प्र. भन्ते ! क्या कदाचित (दो तीन चार या पांच पंचेन्द्रिय मिल कर एक साधारण शरीर बांधते हैं और बांधकर उसके बाद आहार करते हैं, आहार को परिणमाते हैं, फिर शरीर को बांधते हैं ?
उ. गौतम ! पूर्ववत् द्वीन्द्रिय जीवों के समान जानना चाहिए। विशेष- इनके छहों लेश्याएं और तीनों दृष्टियां होती हैं। इनमें चार ज्ञान और तीन अज्ञान विकल्प से होते हैं और तीनों योग होते हैं।
प्र. भन्ते ! क्या उन (पंचेन्द्रिय) जीवों को ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन या वचन होता है कि हम आहार ग्रहण करते हैं ?
उ. गौतम ! कितने ही (संज्ञी) जीवों को ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन या वचन होता है कि हम आहार ग्रहण करते हैं और कितने ही असंज्ञी जीवों को ऐसी संज्ञा यावत् वचन नहीं होता कि हम आहार ग्रहण करते हैं फिर भी वे आहार तो करते ही हैं।
प्र. भन्ते ! क्या उन (पंचेन्द्रिय) जीवों को ऐसी संज्ञा मन या वचन
होता है कि हम इष्ट अनिष्ट शब्द, इष्ट अनिष्ट रूप, इष्ट अनिष्ट गन्ध, इष्ट अनिष्ट रस अथवा इष्ट अनिष्ट स्पर्श का अनुभव (प्रतिसंवेदन) करते हैं ?
उ. गौतम ! कतिपय (संज्ञी) जीवों को ऐसी संज्ञा यावत् वचन होता है कि हम इष्ट अनिष्ट शब्द यावत् इष्ट अनिष्ट स्पर्श का अनुभव करते हैं। किसी-किसी (असंज्ञी) को ऐसी संज्ञा यावत् वचन नहीं होता है कि हम इष्ट अनिष्ट शब्द यावत् इष्ट अनिष्ट स्पर्श का प्रतिसंवेदन करते हैं। परन्तु वे (शब्द आदि का संवेदन) अनुभव तो करते ही हैं।
प्र. भन्ते ! क्या ऐसा कहा जाता है कि वे (पंचेन्द्रिय) जीव प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में रहे हुए हैं ?
उ. गौतम । उनमें से कई (पंचेन्द्रिय) जीव प्राणातिपात याव मिथ्यादर्शनशल्य में रहे हुए हैं, ऐसा कहा जाता है। कई जीव प्राणातिपात पावत मिथ्यादर्शनशल्य में नहीं रहे हुए हैं ऐसा कहा जाता है। जिन जीवों के प्रति वे प्राणातिपात आदि का व्यवहार करते हैं, उन जीवों में से कई जीवों को "हम मारे जाते हैं" और "ये हमें मारने वाले हैं" इस प्रकार का विज्ञान होता है और कई जीवों को इस प्रकार का ज्ञान नहीं होता है।
उन जीवों का उत्पाद सर्वार्थसिद्ध पर्यन्त के सर्व जीवों से भी होता है।
उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की होती है।
उनमें केवली समुद्घात को छोड़ कर (शेष) छह समुद्घात होते हैं।