________________
१२६४
प. जत्थ णं भंते ! एगे आउकाइए ओगाढे तत्थ णं केवइया
पुढविकाइया ओगाढा? उ. गोयमा ! असंखेज्जा।
प. केवइया आउक्काइया ओगाढा? उ. असंखेज्जा।
एवं जहेव पुढविकाइयाणं वत्तव्वया तहेव सव्वेसिं निरवसेसं भाणियव्वं जाव वणस्सइकाइयाणं जाव
प. भंते ! केवइया वणस्सइकाइया ओगाढा?
उ. गोयमा ! अणंता। -विया. स. १३, उ.४, सु. ६४-६५ ७. सुहमसिणेहकायस्स पवडण परूवणं
प. अत्थिणं भंते ! सया समियं सुहुमे सिणेहकाये पवडइ?
उ. हता, गोयमा ! अत्थि। प. से भंते ! किं उड्ढे पवडइ, अहे पवडइ, तिरिए पवडइ?
उ. गोयमा ! उड्ढे वि पवडइ, अहे वि पवडइ, तिरिए वि
पवडइ। प. भन्ते ! जहा से बायरे आउकाए अन्नमन्नसमाउते चिरं पि
दीहकालं चिट्ठइ, तहा णं से वि? उ. गोयमा ! नो इणढे समढे, से णं खिप्पामेव
विद्धंसमागच्छइ। -विया. स. १, उ.६, सु. २७ ८. अप्प-महावुद्धिं हेऊ परूवणं
तिहिं ठाणेहि अप्पवुट्ठीकाए सिया,तं जहा१. तस्सिं च णं देसंसि वा, पदेसंसि वा णो बहवे उदगजोणिया
जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमति, विउक्कमंति,
चयंति, उववज्जति। २. देवा णागा जक्खा भूया णो सम्ममाराहिया भवंति, तत्थ
समुट्ठियं उदगपोग्गलं परिणयं वासिउकामं अण्णं देसं
साहरंति। ३. अब्भबद्दलगं च णं समुट्ठियं परिणयं वासिउकामं वाउकाए
विधुणइ, इच्चेएहिं तिहिं ठाणेहिं अप्पवुट्ठिकाए सिया।
तिहिं ठाणेहिं महावुट्ठीकाए सिया,तं जहा१. तस्सिं च णं देसंति वा, पदेसंति वा, बहवे उदगजोणिया
जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमति विउक्कमंति, चयंति, उववज्जति। देवा णागा जक्खा भूया सम्ममाराहिया भवंति, अण्णत्थ समट्ठियं उदगपोग्गलं परिणयं वासिउकामं तं देसं
साहरंति, ३. अब्भबद्दलगं च णं समुट्ठियं परिणयं वासिउकामं णो
वाउआए विधुणइ
द्रव्यानुयोग-(२) प्र. भन्ते ! जहां एक अप्कायिक जीव अवगाढ होता है, वहां
कितने पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ होते हैं ? उ. गौतम ! वहां असंख्यात (पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ
होते हैं।) प्र. कितने अकायिक जीव अवगाढ होते हैं? उ. असंख्यात अवगाढ होते हैं।
जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों के लिए कहा उसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीव पर्यन्त अन्यकायिक जीवों का समस्त
कथन करना चाहिए यावत्प्र. भंते ! वहां कितने वनस्पतिकायिक जीव अवगाढ होते हैं ?
उ. गौतम ! वहां अनन्त अवगाढ होते हैं। ७. सूक्ष्म स्नेहकाय के पतन का प्ररूपणप्र. भन्ते ! क्या सूक्ष्म स्नेहकाय (सूक्ष्म जल) सदा परिमित
(सीमित) पड़ता है? उ. हाँ, गौतम ! पड़ता है। प्र. भन्ते ! वह सूक्ष्म स्नेहकाय ऊपर पड़ता है, नीचे पड़ता है या
तिरछा पड़ता है? उ. गौतम ! वह ऊपर भी पड़ता है, नीचे भी पड़ता है और तिरछा
भी पड़ता है। प्र. भन्ते ! क्या वह सूक्ष्म स्नेहकाय बादर अकाय की भांति
परस्पर समायुक्त होकर बहुत दीर्घकाल तक रहता है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि वह (सूक्ष्म स्नेहकाय)
शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। ८. अल्प महावृष्टि के हेतुओं का प्ररूपण
तीन कारणों से अल्प वृष्टि होती है, यथा१. किसी देश या प्रदेश में पर्याप्त मात्रा में उदकयोनिक जीवों
और पुद्गलों के उदक रूप में उत्पन्न होने और नष्ट होने तथा
नष्ट और उत्पन्न होने से, २. देव, नाग, यक्ष और भूतों के सम्यक् प्रकार से आराधित न
होने पर उस देश में उत्थित वर्षा में परिणत तथा बरसने वाले
उदक-पुद्गलों (मेघों) का अन्य देश में संहरण होने से, ३. समुत्थित वर्षा में परिणत तथा बरसने वाले अभ्रबादलों के
वायु द्वारा नष्ट होने से, इन तीन कारणों से अल्प वृष्टि होती है।
तीन कारणों से महावृष्टि होती है, यथा१. किसी देश या प्रदेश में पर्याप्त मात्रा में उदकयोनिक जीवों . और पुद्गलों के उदक रूप में उत्पन्न होने और नष्ट होने तथा
नष्ट और उत्पन्न होने से, २. देव नाग, यक्ष और भूतों के सम्यक् प्रकार आराधित होने पर
अन्यत्र उत्थित वर्षा में परिणत तथा बरसने वाले उदक
पुद्गलों का उस देश में संहरण होने से, ३. समुत्थित वर्षा में परिणत तथा बरसने वाले अभ्रबादलों के
वायु द्वारा नष्ट न होने से,