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नरक गति अध्ययन
चिता महंती उ समारभित्ता, छुब्भंति ते तं कलुणं रसंतं। आवट्टई तत्थ असाहुकम्मा, सप्पी जहा पतितं जोइमज्झे ॥१२॥ सदा कसिणं पुण धम्मठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्म। हत्थेहिं पाएहिं य बंधिऊणं, सत्तुं व दण्डेहिं समारभंति ॥१३॥ भंजंति बालस्स वहेण पट्ठि, सीसंपि भिंदंति अयोघणेहिं। ते भिन्नदेहा व फलगावतट्ठा, तत्ताहिं आराहिं णियोजयंति ॥१४॥ अभिजुंजिया रूद्द असाहुकम्मा, उसुचोइया हत्थिवहं वहंति। एगं दुरूहित्तु दुए तयो वा, आरुस्स विझंति ककाणओ से ॥१५॥ बाला बला भूमि मणोक्कमंता, पविज्जलं कंटइलं महंतं। विबद्ध तप्पेहिं विवण्णचित्ते, समीरिया कोट्ट बलिं करेंति ॥१६॥ वेयालिए नाम महाभितावे, एगायए पव्वयमंतलिक्खे। हम्मति तत्था बहुकूरकम्मा, परं सहस्साण मुहुत्तगाणं ॥१७॥ संबाहिया दुक्कडियो थणंति, अहो य राओ परितप्पमाणा। एगंतकूडे नरए महंते, कूडेण तत्था विसमे हया उ ॥१८॥ भंजंति णं पुव्बमरी सरोसं, समुग्गरे ते मुसले गहेर्छ। ते भिन्नदेहा रुहिरं वमंता, ओमुद्धगा धरणितले पडंति ॥१९॥ अणासिया नाम महासियाला, पागभिणो तत्थ सयायकोवा। खज्जंति तत्था बहुकूरकम्मा, अदूरयासंकलियाहिं बद्धा ॥२०॥ सयाजलानाम नदीऽभिदुग्गा, पविज्जला लोहविलीणतत्ता। जंसी भिदुग्गंसि पवज्जमाणा, एगाइताऽणुक्कमणं करेंति ॥२१॥
१२५५ वे परमाधार्मिक बड़ी भारी चिता रचकर उसमें करुण रुदन करते हुए नारकीय जीव को फेंक देते हैं जैसे घी अग्नि में डालते ही पिघल जाता है, वैसे ही उस चिता की अग्नि में पड़ा हुआ पाप-कर्मी नारक भी द्रवीभूत हो जाता है।॥१२॥ वहाँ पर एक ऐसा स्थान है जो सदैव सम्पूर्ण रूप से गर्म रहता है जिसका स्वभाव अतिदुःख देना है तथा जिसको निकाचित पाप कर्मों को बांधने वाले प्राप्त करते हैं। वे परमाधार्मिक देव उन नारकों के शत्रु के समान बनकर उनके हाथ पैर बांधकर डंडों से पीटते हैं ॥१३॥ वे परमाधार्मिक देव उन अज्ञानी जीवों की पीठ को लाठी आदि से मार मार कर तोड़ देते हैं और उनका सिर भी लोहे के घन से चूर-चूर कर देते हैं और छिन्न भिन्न शरीर वाले उन नारकों को काष्ठफलक की तरह तपे हुए आरे से चीरते हैं ॥१४॥ नरकपाल नारकीय जीवों के रौद्र पापकर्मों का स्मरण करा कर अंकुश से प्रेरित किये हुए हाथी के समान भार वहन कराते हैं। उनकी पीठ पर एक दो या तीन नारकीयों को चढ़ाकर उन्हें चलने के लिए प्रेरित करते हैं और क्रुद्ध होकर तीखे नोकदार शस्त्र से उनके मर्मस्थान को बींध डालते हैं ॥१५॥ बालक के समान बेचारे नारकी जीव नरकपालों द्वारा बलात् कीचड़ से भरी और काँटों से परिपूर्ण विस्तृत भूमि पर चलाये जाते हैं और अनेक प्रकार के बंधनों से बांधे हुए उदास चित्त उन नारक जीवों के टुकड़े-टुकड़े करके नगरबलि के समान इधर उधर बिखेर दिये जाते हैं ॥१६॥ आकाश को स्पर्श करता हुआ (दिवाल के समान) एक शिला से बनाया हुआ लम्बा बड़े भारी ताप से युक्त वैतालिक नामक एक पर्वत है। उस पर अतिक्रूरकर्मी नारकी जीव हजारों मुहूर्तों से भी अधिक काल तक मारे जाते हैं ॥१७॥ निरन्तर पीड़ित किये जाने से दुःखी, दुष्कर्म करने वाले नैरयिक दिन-रात परिताप भोगते हुए रोते रहते हैं और एकान्त रूप से दुःखोत्पत्ति के हेतु विषम और विशाल नरक में पड़े हुए प्राणी गले में फांसी डालकर मारे जाते समय केवल रोते रहते हैं।॥१८॥ पहले तो वे नरकपाल मुद्गर और मूसल हाथ में लेकर शत्रु के समान रोष के साथ नारकी जीवों के अंगों को तोड़ फोड़ देते हैं और जिनकी देह टूट गई है ऐसे वे नारकी जीव रक्त वमन करते हुए अधोमुख होकर जमीन पर गिर पड़ते हैं ॥१९॥ उस नरक में स्वभाव से ही सदैव क्रोधी भूखे और ढीठ बड़े-बड़े सियार रहते हैं। जो वहाँ रहने वाले जन्मान्तर में महान् क्रूर कर्म करने वाले और पास में ही जंजीरों से बंधे हुए उन नारकों को खा जाते हैं ॥२०॥
सदाजला नाम की एक अत्यन्त दुर्गम नदी है जिसका जल क्षार, मवाद और रक्त से व्याप्त है और वह आग से पिघले हुए तरल लोहे के समान अत्यन्त उष्ण है ऐसी अत्यन्त दुर्गम नदी में प्रवेश किये हुए नारक जीव अकेले ही असहाय होकर तैरते रहते हैं ॥२१॥