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हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं, उदरं विकत्तंति खुरासिएहिं । गेहेतु बालरस विहन देह, वद्ध थिर पिट्ठओ उद्धरति ॥२॥ बाहू पकत्तंति मूलओ से,
थूलं वियासं मुहे आडहंति । रहंसि जुत्तं सरयति बाल, आरुस्स विज्झति तुदेणपिट्ठे ॥ ३ ॥ अयं तत्तं जलियं सजोई, तओवमं भूमिमणोक्कमंता ।
ज्झमाणा कणं थांति, उसुचोइया तत्तजुगेसु जुत्ता ॥४ ॥ बाला बला भूमि मणोकमंता, पविज्जलं लोहपहं व तत्तं । जंसीऽभिदुग्गसि पवजमाणा, पेसेव दंडेहिं पुरा करेंति ॥५ ॥
ते संपगाढंसि पवज्जमाणा, सिलाहिंहम्मंतिऽभिपातिणीहिं । संतावणी नाम चिट्ठिईया, संतप्प जत्थ असाहुकम्मा ६ ॥ कंदूसु पक्खिप्प पर्यंत बाल, तओ वि डड्ढा पुणरुप्पयंति । ते उड्ढकाएहिं पखज्जमाणा, अवरेहिं खज्जति सणफएहिं ॥७॥
समूसियं नाम विधूमठाणं,
जं सोयतत्ता कण वर्णति । अहोसिर कट्टु विगत्तिऊणं, अयं व सत्येहिं समोसयेति ॥ ८ ॥
समूसिया तत्थ विसूणियंगा, पक्खीहिं खज्जंति अयोमुहेहिं । संजीवणी नाम चिरईिया,
सि पया हम्म पावचेया ॥ ९ ॥
तिक्खाहिं सूलाहिं भिद्यावयति, वसोवगं सो अरियं वद्धं । ते सूलविद्धा कलणं थांति, एतदुक्खं दुहओ गिलाणा ॥१० ॥ सदा जलं ठाणं निहं महंतं, जंसी जलती अगणी अकट्ठा।
चिट्ठती तत्था बहुकूरकम्मा, अरहस्सरा केइ चिरदिईया ॥११॥
द्रव्यानुयोग - ( २ ) (परमाथार्मिक असुर ) नारकीय जीवों के हाथ पैर बांधकर तेज उस्तरे और तलवार के द्वारा उनका पेट काट डालते हैं और उस अज्ञानी जीव की क्षत-विक्षत देह को पकड़कर उसकी पीठ की चमड़ी जोर से उधेड़ देते हैं ॥२॥
वे उनकी भुजाओं को जड़ मूल से काट लेते हैं और बड़े-बड़े तपे हुए गोले को मुँह में डालते हैं फिर एकान्त में ले जाकर उन अज्ञानी जीवों के जन्मान्तर कृत कर्म का स्मरण कराते हैं और अकारण ही कोप करके चाबुक आदि से उनकी पीठ पर प्रहार करते हैं ॥ ३ ॥ ज्योतिसहित तपे हुए लोहे के गोले के समान जलती हुई तप्त भूमि पर चलने से और तीन भाले से प्रेरित गाड़ी के तप्त जुए में जुते हुए वे नारकी जीव करुण विला करते हैं ॥४ ॥
अज्ञानी नारक जलते हुए लोहमय मार्ग के समान (रक्त और मवाद के कारण ) कीचड़ में भी भूमि पर (परमाधार्मिकों द्वारा) बलात् चलाये जाते हैं किन्तु जब वे उस दुर्गम स्थान पर ठीक से नहीं चलते हैं तब (कुपित होकर) डंडे आदि मारकर बैलों की तरह जबरन उन्हें आगे चलाते हैं ॥५ ॥
तीव्र वेदना से व्याप्त नरक में रहने वाले वे (नारकी जीव) सम्मुख गिरने वाली शिलाओं द्वारा नीचे दबकर मर जाते हैं और चिरकालिक स्थिति वाली सन्ताप देने वाली कुम्भी में वे दुष्कर्मी नारक संतप्त होते रहते हैं ॥ ६ ॥
(नरकपाल) अज्ञानी नारक को गेंद के समान आकार वाली कुम्भी में डालकर पकाते हैं और चने की तरह भूने जाते हुए वे वहाँ से फिर ऊपर उछलते हैं जहाँ वे उड़ते हुए कौओं द्वारा खाये जाते हैं। तथा नीचे गिरने पर दूसरे सिंह व्याघ्र आदि हिंस्र पशुओं द्वारा खाये जाते हैं ॥७॥
नरक में (ऊँची चिता के समान आकार वाला) धूम रहित अग्नि का एक स्थान है जिस स्थान को पाकर शोक संतप्त नारकी जीव करुण स्वर में विलाप करते हैं और नारकपाल उसके सिर को नीचा करके शरीर को लोहे की तरह शस्त्रों से काटकर टुकड़े टुकड़े कर डालते हैं ॥८ ॥
वहाँ नरक में (अधोमुख करके) लटकाए हुए तथा शरीर की चमड़ी उधेड़ ली गई है ऐसे नारकी जीवों को लोहे के समान चोंच वाले पक्षीगण खा जाते हैं। जहाँ पर पापात्मा नारकीय जीव मारे पीटे जीते हैं किन्तु संजीवनी (मरण कष्ट पाकर भी आयु शेष रहने तक जीवित रखने वाली) नामक नरक भूमि होने से वह चिरस्थिति वाली होती है ॥९ ॥
वशीभूत हुए श्वापद हिंस्र पशुओं जैसे नारकी जीवों को परमाधार्मिक तीखे शूलों से बींधकर मार गिराते हैं वे शूलों से बीधे हुए (भीतर और बाहर) दोनों ओर से ग्लानि (पीड़ित) एवं एकान्त दुःखी होकर करुण क्रन्दन करते हैं ) ॥१०॥
वहाँ (नरकों में) सदैव जलता हुआ एक महान् (प्राणिघातक) स्थान है, जिसमे बिना ईंधन की आग जलती रहती है जिन्होंने (पूर्वजन्म में) बहुत क्रूर कर्म किये हैं वे कई चिरकाल तक वहाँ निवास करते हैं और जोर-जोर से गला फाड़कर रोते हैं ॥ ११ ॥