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द्रव्यानुयोग-(२)
१२३२ प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
“अत्थेगइयं वेदेति,अत्थेगइयं नो वेदति?" उ. गोयमा ! उदिण्णं वेदेति, नो अणुदिण्णं वेदेति।
से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"अत्थेगइयं वेदेति, अत्थेगइयं नो वेदेति।" दं.१-२४. एवंणेरइया जाव वेमाणिया।
-विया.स.१,उ.२.स.२-३ १६. जीव-चउवीसदंडएसु अत्तकडदुक्खस्स वेयण परूवणंप. जीवा णं भंते ! किं अत्तकडे दुक्खे, परकडे दुक्खे,
तदुभयकडे दुक्खे? उ. गोयमा ! अत्तकडे दुक्खे, नो परकडे दुक्खे, नो
तदुभयकडे दुक्खे। दं.१-२४. एवं नेरइया जाव वेमाणिया।
प. जीवा णं भंते ! किं अत्तकडं दुक्खं वेदेति, परकडं दुक्खं
वेदेति, तदुभयकडं दुक्खं वेदेति? उ. गोयमा ! अत्तकडं दुक्खं वेदेति, नो परकंडं दुक्खं वेदेति,
नो तदुभयकडं दुक्खं वेदेति। दं.१-२४.एवं नेरइया जाव वेमाणिया।
प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि___ "किसी को वेदते हैं और किसी को नहीं वेदते हैं?" उ. गौतम ! उदीर्ण को वेदते हैं, अनुदीर्ण को नहीं वेदते हैं।
इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"किसी को वेदते हैं और किसी को नहीं वेदते हैं।" द.१-२४. इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त जानना
चाहिए। १६. जीव-चौबीस दंडकों में आत्मकृत दुःख के वेदन का प्ररूपणप्र. भंते ! जीवों का दुःख आत्मकृत (स्वकर्म उपार्जित) है, परकृत
(परप्रदत्त) है या उभयकृत है? उ. गौतम ! (जीवों का) दुःख आत्मकृत है, किन्तु परकृत और
उभयकृत नहीं है। द. १-२४. इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिक पर्यन्त जानना
चाहिए। प्र. भंते ! जीव आत्मकृत दुःख वेदते हैं, परकृत दुःख वेदते हैं या
उभयकृत दुःख वेदते हैं? उ. गौतम ! जीव आत्मकृत दुःख वेदते हैं किन्तु परकृत दुःख और
उभयकृत दुःख नहीं वेदते हैं। दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त जानना
चाहिए। प्र. भंते ! जीवों को आत्मकृत वेदना होती है, परकृत वेदना होती
है या उभयकृत वेदना होती है ? उ. गौतम ! जीवों की वेदना आत्मकृत है किन्तु परकृत और
उभयकृत वेदना नहीं है। दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त जानना
चाहिए। प्र. भंते ! जीव आत्मकृत वेदना वेदते हैं, परकृत वेदना वेदते हैं
या उभयकृत वेदना वेदते हैं? उ. गौतम ! जीव आत्मकृत वेदना वेदते हैं किन्तु परकृत और
उभयकृत वेदना नहीं वेदते हैं। दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त जानना
चाहिए। १७. साता-असाता के छः-छः भेदों का प्ररूपण
सुख के छह प्रकार कहे गये हैं, यथा१. श्रोत्रेन्द्रिय सुख, २. चक्षुरिन्द्रिय सुख, ३. घ्राणेन्द्रिय सुख, ४. जिह्वेन्द्रिय सुख, ५. स्पर्शनेन्द्रिय सुख, ६. नो-इन्द्रिय सुख। असुख के भी छह प्रकार कहे गये हैं, यथा१. श्रोत्रेन्द्रिय असुख यावत् ६ नो-इन्द्रिय असुख।
प. जीवाणं भंते ! किं अत्तकडा वेयणा, परकडा वेयणा,
तदुभयकडा वेयणा? - उ. गोयमा ! अत्तकडा वेयणा, णो परकडा वेयणा, णो
तदुभयकडा वेयणा। दं.१-२४.एवं नेरइया जाव वेमाणिया।
प. जीवा णं भंते ! किं अत्तकडं वेयणं वेदेति, परकडं वेयणं
वेदेति,तदुभयकडं वेयणं वेदेति? उ. गोयमा ! जीवा अत्तकडं वेयणं वेदेति, नो परकडं वेयणं
वेदेति, नो तदुभयकडं वेयणं वेदेति। दं.१-२४. एवं नेरइया जाव वेमाणिया।
-विया.स. १७,उ.४, सु. १३-२० १७. सायासायस्स छव्विहत्त परूवणं
छव्विहे साएपण्णत्ते,तं जहा१. सोइंदियसाए, २. चक्विंदियसाए, ३. घाणिंदियसाए, ४. जिभिंदियसाए, ५. फासिंदियसाए, ६. णो इंदियसाए। छविहे असाए पण्णत्ते,तं जहा१. सोइंदियअसाए जाव ६. नो इंदियअसाए।
-ठाणं.अ.६.सु. ४८८ १८. सोक्खस्स दसविहत्त परूवणं
दसविहे सोक्खे पण्णत्ते,तं जहा१. आरोग्ग, २. दीहमाउं,
१८. सुख के दस प्रकारों का प्ररूपण
सुख के दस प्रकार कहे गये हैं, यथा१. आरोग्य, २. दीर्घआयुष्य,