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द्रव्यानुयोग-(२)) उन सबके दुःख या सुख को बेर की गुठली बाल नामक धान्य कलाय (मटर) मूंग उड़द जूं और लीख जितना भी बाहर निकाल कर नहीं दिखा सकता।
चक्किया केइ सुहं वा दुहं वा जाव कोलट्ठियामायमवि निप्फावमायमवि, कलममायमवि, मासमायमवि, मुग्गमायमवि, जूयमायमवि, लिक्खामायमवि, अभिनिवदे॒त्ता उवदंसित्तए,
से कहमेयं ! एवं? उ. गोयमा ! जे णं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव एवं परूवेंति, मिच्छं ते एवमाहंसु। अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि"सव्वलोए वि य णं सव्वजीवाणं णो चक्किया केइ सुहं वा तं चेव जाव उवदंसित्तए।"
प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"सव्वलोए वि य णं सव्वजीवाणं णो चक्किया केइ सुहं
वा तं चेव जाव उवदंसित्तए?" उ. गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे जाव विसेसाहिए
परिक्खेवेणं पन्नत्ते। देवेणं महिड्ढीए जाव महाणुभागे एगं महे सविलेवणं गंधसमुग्गयं गहाय तं अवदालेइ, तं अवदालित्ता जाव इणामेव कट्ट केवलकप्पं जंबूद्दीवे दीवे तिहिं अच्छरानिवाएहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं हव्वमागच्छेज्जा, से नूणं गोयमा ! से केवलकप्पे जंबूद्दीवे दीवे तेहिं घाणपोग्गलेहिं फुडे?
भंते ! यह बात यों कैसे हो सकती है? उ. गौतम ! जो अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा
करते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि- "केवल राजगृह नगर में ही नहीं सम्पूर्ण लोक में रहे हुए सर्व जीवों के सुख या दुःख को कोई भी पुरुष उपर्युक्त रूप में यावत् किसी भी प्रमाण में बाहर निकाल कर नहीं दिखा
सकता।" प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
“सम्पूर्ण लोक में रहे हुए सर्व जीवों के सुख या दुःख को कोई
भी पुरुष दिखाने में यावत् कोई समर्थ नहीं है ?" उ. गौतम ! यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप यावत् विशेषाधिक परिधि
वाला है। वहाँ पर महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव एक बड़े विलेपन वाले गन्धद्रव्य के डिब्बे को लेकर उघाड़े और उघाड़कर तीन चुटकी बजाए, उतने समय में उपर्युक्त जम्बूद्वीप की इक्कीस बार परिक्रमा करके वापस शीघ्र आए तो हे गौतम ! (मैं तुम से पूछता हूँ) उस देव की इस प्रकार की शीघ्र गति से गन्ध पुद्गलों के स्पर्श से यह सम्पूर्ण जम्बूद्वीप स्पृष्ट हुआ या नहीं? (गौतम) हाँ भंते ! वह स्पृष्ट हो गया। (भगवान्) हे गौतम ! कोई पुरुष उन गन्धपुद्गलों को बेर की गुठली जितना भी यावत् लीख जितना भी दिखलाने में
समर्थ है?
हंता, फुडे चक्किया णं गोयमा ! केइ तेसिं घाणपोग्गलाणं कोलट्ठियमायमवि जाव लिक्खामायमवि अभिनिवटेत्ता उवदंसित्तए? णो इणठे समठे। से तेणढे णं गोयमा ! एवं वुच्चइ'नो चक्किया केइ सुहं वा जाव उवदंसेत्तए।'
-विया. स. ६, उ. १०,सु.१ २१. जीवचउवीसदंडएसुजरा-सोग वेयण परूवणं
प. जीवाणं भंते ! किंजरा, सोगे? उ. गोयमा !जीवाणं जरा वि,सोगे वि। प. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ_ 'जीवाणं जरा वि, सोगे वि?' उ. गोयमा ! जे णं जीवा सारीरं वेयणं वेदेति, तेसि णं
जीवाणं जरा, जेणं जीवा माणसं वेयणं वेदेति, तेसिणं जीवाणं सोगे। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"जीवा णं जरा वि; सोगे वि।" दं.१.एवं नेरइयाण वि।
(गौतम) भंते ! यह अर्थ समर्थ नहीं है? इस कारण से हे गौतम ! यह कहा जाता है कि'जीव के सुख दुःख को भी बाहर निकाल कर बतलाने में
यावत् कोई भी व्यक्ति समर्थ नहीं है।' २१. जीव-चौबीस दंडकों में जरा-शोक वेदन का प्ररूपण
प्र. भंते ! क्या जीवों के जरा और शोक होता है? उ. गौतम ! जीवों के जरा भी होती है और शोक भी होता है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
'जीवों के जरा भी होती है और शोक भी होता है?' उ. गौतम ! जो जीव शारीरिक वेदना वेदते (अनुभव करते) हैं,
उनको जरा होती है। जो जीव मानसिक वेदना वेदते हैं, उनको शोक होता है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"जीवों के जरा भी होती है और शोक भी होता है।" दं. १. इसी प्रकार नैरयिकों के (जरा और शोक) भी समझ लेना चाहिए।
दं.२-११. इसी प्रकार स्तनितकुमारों पर्यन्त जानना चाहिए। प्र. दं.१२. भंते ! क्या पृथ्वीकायिक जीवों के भी जरा और शोक
होता है?
दं.२-११. एवं जाव थणियकुमाराणं। प. दं.१२. पुढविकाइयाणं भंते ! किं जरा, सोगे?