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द्रव्यानुयोग-(२) ) पंचेंदिय तिरिक्खजोणिया-परित्ता असंखेज्जा।
पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक-परित्त हैं और असंख्यात है, -जीवा. पडि.१,सु.३५-४० सम्मुच्छिम मणुस्सा-परित्ता असंखेज्जा।
समूर्छिम मनुष्य-परित्त हैं और असंख्यात हैं, गब्मवक्कंतिय मणुस्सा-परित्ता संखेज्जा। -जीवा. पडि. १, सु.४१ गर्भज मनुष्य-परित्त हैं और संख्यात हैं,
देवा-परित्ता असंखेज्जा। -जीवा. पडि.१,सु. ४२ देव-परित्त हैं और असंख्यात हैं। ९. चउगईसु सिद्धस्स य कायट्ठिई पखवणं
९. चार गति और सिद्ध की कायस्थिति का प्ररूपणप. णेरइएणं भंते ! नेरइए त्ति कालओ केवचिर होइ?
प्र. भन्ते ! नारक नारकपर्याय में कितने काल तक रहता है? उ. गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं उ. गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष, उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम।
सागरोवामाई। प. तिरिक्खजोणिए णं भंते ! तिरिक्खजोणिए त्ति कालओ प्र. भन्ते ! तिर्यञ्चयोनिक तिर्यञ्चयोनिकपर्याय में कितने काल केवचिरं होइ?
तक रहता है? उ. गोयमा !जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतंकालं,२ उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट अनन्तकाल अर्थात् अणंताओ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीओ कालओ,
कालतः अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल तक, खेत्तओ अणंता लोगा,असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा,
क्षेत्रतः अनन्त लोक, असंख्यात पुद्गलपरावर्त रूप हैं, तेणं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइभागो।
वे पुद्गलपरावर्त आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। प. तिरिक्खजोणिणी णं भंते ! तिरिक्खजोणिणी त्ति कालओ प्र. भन्ते ! तिर्यञ्चयोनिनी तिर्यञ्चयोनिनी पर्याय में कितने काल केवचिरं होइ?
तक रहती है? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि उ. गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व पलिओवमाई पुवकोडिपुत्तमब्महियाई।
अधिक तीन पल्योपम तक रहती है। एवं मणूसे वि।
इसी प्रकार मनुष्य की कायस्थिति के लिए कहना चाहिए। मणूसी वि एवं चेव।
मनुष्य स्त्री के लिए भी इसी प्रकार कहना चाहिए। प. देवेणं भंते ! देवे त्ति कालओ केवचिरं होइ?
प्र. भन्ते ! देव-देव पर्याय में कितने काल तक रहता है ? उ. गोयमा !जहेवणेरइए।
उ. गौतम ! नारक के समान देव की कायस्थिति कहनी चाहिए। प. देवी णं भंते ! देवी त्ति कालओ केवचिरं होइ?
प्र. भन्ते ! देवी-देवी पर्याय में कितने काल तक रहती है ? उ. गोयमा !जहण्णेणं दस वाससहस्साई,
उ. गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिओवमाई।
उत्कृष्ट पचपन पल्योपम तक रहती है। प. सिद्धे णं भंते ! सिद्धे त्ति कालओ केवचिर होइ?
प्र. भन्ते ! सिद्ध जीव सिद्धपर्याय में कितने काल तक रहता है ? उ. गोयमा ! साईए अपज्जवसिए६।
उ. गौतम ! सिद्ध जीव सादि अनन्त काल तक रहता है। -पण्ण.प.१८,सु.१२६१-१२६५ प. असिद्धे णं भंते !असिद्धे त्ति कालओ केवचिर होइ?
प्र. भन्ते ! असिद्ध असिद्ध पर्याय में कितने काल तक रहता है? उ. गोयमा ! असिद्धे दुविहे पण्णत्ते,तं जहा
उ. गौतम ! असिद्ध दो प्रकार का कहा गया है, यथा१. अणाईए वा अपज्जवसिए,
१. अनादि अपर्यवसित, २. अणाईए वा सपज्जवसिए वा।
२. अनादि सपर्यवसित। "-जीवा. पडि. ९, सु. २३१ १०. जलयराइ पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं कायट्ठिई काल १०. जलचरादि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों की कायस्थिति का परूवणं
प्ररूषणपुव्वकोडीपुहत्तं तु उक्कोसेण वियाहिया।
जलचरों की कायस्थिति उत्कृष्ट पूर्वकोटि-पृथक्त्व की है और कायट्ठिई जलयराणं अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥
जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। -उत्त.अ.३६,गा.१७६
१. (क) उत्त.अ.३६,गा.१६७
(ख) जीवा.पडि.३,सु.२०६ २. उत्त.अ.३६,गा.१७६
३. (क) उत्त.अ.३६,गा.२०१
(ख) जीवा.पडि.७,सु.२२६ ४. उत्त.अ.३६,गा.२४५ ५. (क) जीवा.पडि.३,सु. २०६
(ख) जीवा.पडि.६,सु.२२५
६. (क) जीवा. पडि.९, सु.२५५
(ख) जीवा. पडि.९, सु.२३१ (ग) जीवा. पडि.९,सु.२४९