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गति-अध्ययन
गति का सामान्य अर्थ होता है-गमन। एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर पहुँचना ही इस प्रकार 'गति' कहा जा सकता है। सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक आदि ग्रन्थों में गति का सामान्य लक्षण इसी प्रकार दिया है-'देशाद् देशान्तर प्राप्ति हेतुर्गतिः।' अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान को प्राप्त करने का जो हेतु या साधन है उसे गति कहते हैं। वस्तुतः गति तो क्रिया की बोधक होती है, किन्तु जिस निमित्त से यह क्रिया सम्पन्न होती है उस निमित्त के आधार पर उस गति का नामकरण हो जाता है। यह नाम उपचार से दिया जाता है, यथा नरक के निमित्त से जो गति होती है उस नरकगति कहा जाता है। नरकगति का सामान्य अर्थ है-नरक की ओर गमन करना, नरकायु का फलभोगने के लिए नरक (रत्नप्रभा आदि) पृथ्वी की ओर गमन करना। किन्तु उपचार से गति के अनन्तर जो स्थान प्राप्त किया जाता है उसे भी गति ही कह दिया जाता है, यथा नरक स्थान को भी नरकगति कह दिया जाता है। ग्रामीण बोलचाल की भाषा में गति (गत) शब्द हालत, अवस्था या दशा के अर्थ में प्रयुक्त होता है, किन्तु वह भी औपचारिक प्रयोग है। गति क्रिया का जो फल उसे भी यहाँ गति कहा गया है। इस प्रकार गति क्रिया के निमित्त एवं फल भी गति शब्द से अभिहित होते हैं।
गति-क्रिया जीव एवं पुद्गल द्रव्यों में पायी जाती है, शेष चार द्रव्यों में नहीं। वे ही दोनों एक स्थान को छोड़कर अन्यत्र गमन करते हैं। अन्य कोई द्रव्य एक स्थान को छोड़कर अन्यत्र गमन नहीं करना। धर्म, अधर्म एवं आकाश तो लोकव्यापी होने से यह क्रिया नहीं कर सकते और काल अस्तिकाय नहीं होने के कारण अथवा अप्रदेशी होने के कारण ऐसा नहीं कर सकता। स्थानाङ्ग सूत्र के आठवें स्थान में गति के आठ प्रकार निरूपित हैं-(१) नरकगति, (२) तिर्यञ्चगति, (३) मनुष्य गति, (४) देवगति, (५) सिद्ध गति, (६) गुरु गति, (७) प्रणोदन गति और (८)प्राग्भार गति। इनमें से प्रारम्भ की पाँच गतियाँ तो जीव से ही सम्बद्ध हैं, किन्तु अन्तिम तीन गतियाँ पुद्गल में उपलब्ध होती हैं। इनमें परमाणु की स्वाभाविक गति को गुरुगति कहा जाता है। प्रेरित करने, धमका देने आदि पर जो गति होती है वह प्रणोदन गति है। यह जीव एवं पुद्गल दोनों में संभव है। प्राग्भार गति एक प्रकार से वजन के बढ़ने पर नीचे झुकने की गति अथवा गुरुत्वाकर्षण की गति का बोधक है। यह भी पुद्गल में पाई जाती है। प्रारम्भिक पाँच गतियों में चार संसारी जीवों में होती है तथा पाँचवी गति मुक्त जीव में एक ही बार होती है।
कर्म-सिद्धान्त की दृष्टि से अथवा संसारी जीवों की गतियों की दृष्टि से चार गतियाँ प्रसिद्ध हैं-१. नरक गति, २.तिर्यञ्च गति, ३. मनुष्य गति और ४. देवगति। जीवों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमनागमन की दृष्टि से ये चार ही गतियाँ प्रसिद्ध हैं। जब तक जीव कर्मों से आबद्ध है, वह तब तक इन्हीं गतियों को प्राप्त होता रहता है, किन्तु जब वह कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाता है तो वह सिद्ध गति को प्राप्त हो जाता है। इस गति को प्राप्त करने के पश्चात् जीव पुनः नरकादि गतियों में नहीं आता। इस अपेक्षा से गति पाँच प्रकार की होती है-नरक गति, तिर्यञ्च गति, मनुष्य गति, देवगति और सिद्धि गति।
इन्हीं पाँच गतियों के किसी अपेक्षा से १० भेद किए गए हैं, यथा-१. नरक गति, २. नरक विग्रह गति, ३. तिर्यञ्चगति, ४. तिर्यञ्च विग्रह गति, ५. मनुष्य गति, ६. मनुष्य विग्रह गति, ७. देव गति, ८. देव विग्रह गति, ९. सिद्धि गति और १०. सिद्धि विग्रह गति। विग्रह शब्द के दो अर्थ हैं शरीर एवं मोड़ (वक्रता)। जीव जब एक शरीर छोड़कर अन्य स्थान पर पहुँचने के लिए गति करता है तो उसकी गति दो प्रकार की होती है-१. ऋजु गति (अनुश्रेणि गति) और २. वक्र गति (विग्रह गति)। नरक आदि स्थानों को प्राप्त करते समय जब ऋजु गति होती है तो उसे नरक गति, तिर्यञ्च गति आदि कहा गया है तथा जब यह गति वक्र होती है एक या एक से अधिक मोड़ वाली होती है तो उसे नरक विग्रह गति, तिर्यञ्च विग्रह गति आदि नामों से अभिहित किया गया है। किन्तु ऐसा मानने पर सिद्धि विग्रह गति भेद उपपन्न नहीं होता है, क्योंकि सिद्धि के अनन्तर जो गति होती है वह सदैव सीधी होती है उसमें कोई मोड़ नहीं होता। टीकाकार ने 'सिद्धिविग्गहगई' का संधि-विच्छेद 'सिद्धि-अविग्गहगई' करके सिद्धि में अविग्रह गति होना अर्थ किया है, जो उपयुक्त है। किन्तु इससे सिद्धि गति एवं सिद्धि विग्रह गति में भेद नही रह पाता। यदि विग्रह का अर्थ शरीर करें, तब भी नरकगति, नरकविग्रह गति आदि में भेद सिद्ध नहीं होता क्योंकि कार्मण शरीर तो सदैव साथ रहता है। नरकगति आदि को गति के द्वारा प्राप्तव्य स्थान तथा नरक विग्रह गति आदि को अन्तराल गति मानकर चलें तो असंगति नहीं होगी। सिद्धि गति भी इसी प्रकार प्राप्तव्य स्थान होगा तथा सिद्धि विग्रह गति का अर्थ उसके लिए मुक्त जीव की गति होगा। ___ नरकादि चार गतियाँ जब दुःखदायी एवं संसाराभिमुख रखने वाली होती हैं तो ये चारों दुर्गति कही जाती हैं। इन चारों में कदाचित् मनुष्य गति एवं देवगति सुखदायी एवं शुभ होने से सद्गति अथवा सुगति मानी जाती हैं। नरक गति एवं तिर्यञ्च गति अशुभ होने के कारण सद्गति नहीं मानी गई। सद्गति अथवा सुगतियों की संख्या भी स्थानाङ्ग सूत्र के अनुसार चार हैं-१. सिद्ध सुगति, २. देव सुगति, ३. मनुष्य सुगति और ४. सुकुल में जन्म। इनमें सिद्ध गति तो सुगति है ही क्योंकि वह मोक्षप्राप्ति की सूचक है, किन्तु सुकुल में जन्म होना व्यावहारिक दृष्टि से, सुनिमित्तों के मिलने एवं जीव के आत्मोन्नति का वातावरण मिलने की दृष्टि से सुगति कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है।
दुर्गति एवं सद्गति जीवों को कैसे मिलती है, इसकी भी एक कसौटी दी गई है। जो जीव शब्द, रूप, गन्ध, रस एवं स्पर्श के वास्तविक स्वरूप को जान लेते हैं वे सुगति को प्राप्त करते हैं तथा जो इनसे परिज्ञात नहीं होते हैं, इनके वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते हैं वे जीव दुर्गति को प्राप्त होते हैं। इनके अतिरिक्त दुर्गति एवं सद्गति में जाने के अन्य कारण भी कहे गए हैं, यथा जो जीव प्राणातिपात, मृषावाद अदतादान, मैथुन एवं परिग्रह से विरत होते हैं वे सुगति में जाते हैं तथा जो इनका सेवन करते हैं वे दुर्गति में जाते हैं।
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