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वेदना अध्ययन
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जिस नरकभूमि में क्रूरकर्म करने वाले असुर चारों ओर अग्नियां जलाकर मूढ़ नारकों को तपाते हैं और वे नारकी जीव आग में डाली हुए मछलियों की तरह तड़फड़ाते हुए उसी जगह रहते हैं।
(वहां) संतक्षण नामक एक महान् ताप देने वाला नरक है जहां बुरे कर्म करने वाले नरकपाल हाथों में कुल्हाड़ी लेकर उन नैरयिकों के हाथों और पैरों को बांधकर लकड़ी के तख्ते की तरह छीलते हैं।
चत्तारि अगणीओ समारभित्ता, जहिं कूरकम्माऽभितवेंति बालं। ते तत्थ चिटुंतऽभितप्पमाणा, मच्छा व जीवंतुवजोइपत्ता॥ संतच्छणं नाम महभितावं, ते नारया जत्थ असाहुकम्मा। हत्थेहिं पाएहि य बंधिउणं, फलगं व तच्छंति कुहाडहत्था ॥ रुहिरे पुणो वच्चसमूसियंगे, भिन्नुत्तमंगे परियत्तयंता। पयंति णं णेरइए फुरते, सजीवमच्छे व अओकवल्ले॥ णो चेव ते तत्थ मसीभवंति, ण भिज्जई तिव्वभिवेयणाए। तमाणुभागं अणुवेदयंता, दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कडेणं॥ तहिं च ते लोलणसंपगाढे, गाढं सुतत्तं अगणिं वयंति। न तत्थ.सायं लभतीऽभिदुग्गे, अरहियाभितावा तहवी तवेंति ॥ से सुव्वई नगरवहे व सद्दे, दुहोवणीयाण पयाण तत्थ। उदिण्णकम्माण उदिण्णकम्मा, पुणो-पुणो ते सरहं दुहेति॥ पाणेहि णं पाव वियोजयंति, तंभे पवक्खामि जहातहेणं। दंडेहिं तत्था सरयंति बाला, सव्वेहिं दंडेहिं पुराकएहिं॥ ते हम्ममाणा णरए पडंति, पुण्णे दुरूवस्स महब्भितावे। ते तत्थ चिट्ठति दुरूवभक्खी, तुटंति कम्मोवगया किमीहिं॥ सया कसिणं पुणं धम्मठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्म। अंदूसु पक्खिप्प विहत्तु देहं, वेहेण सीसं सेऽभितावयंति॥ छिदंति बालस्स खुरेण नक्कं, उठे वि छिंदति दुवे विकण्णे। जिब्भं विणिक्कस्स विहत्थिमेत्तं, तिक्खाहिं सूलाहिं तिवातयंति॥ ते तिप्पमाणा तलसंपुडव्व, राइंदियं जत्थ थणंति बाला।
फिर रक्त से लिप्त जिनके शरीर के अंग सूज गये हैं तथा जिनका सिर चूर-चूर कर दिया गया है और जो पीड़ा के मारे छटपटा रहे हैं ऐसे नारकी जीवों को परमाधार्मिक असुर उलट पुलट करते हुए जीवित मछली की तरह लोहे की कड़ाही में डालकर पकाते हैं। वे उस नरक की आग में जलकर भस्म नहीं होते और न वहां की तीव्र वेदना से मरते हैं किन्तु उसके अनुभव का वेदन करते हुए इसलोक में किये हुए दुष्कृत (पाप) के कारण वे दुःखी होकर वहां दुःख का अनुभव करते हैं। उन नारकी जीवों के आवागमन से पूरी तरह व्याप्त हो उस नरक में तीव्ररूप से अच्छी तरह तपी हुई अग्नि के पास जब वे नारक जाते हैं, तब उस अतिदुर्गम अग्नि में वे सुख नहीं प्राप्त करते और तीव्र ताप से रहित नहीं होने पर भी नरकपाल उन्हें और अधिक तपाते हैं। उस नरक में नगरवध के समय होने वाले कोलाहल के समान और दुःख से भरे करुणाजनक शब्द सुनाई पड़ते हैं तो भी जिनके मिथ्यात्वादि कर्म उदय में आए हैं, वे नरकपाल उदय में आये हुए पापकर्म वाले नैरयिकों को बड़े उत्साह के साथ बार-बार दुःख देते हैं। पापी नरकपाल नारकी जीवों के इन्द्रियादि प्राणों को काट-काट कर अलग कर देते हैं, उसका मैं यथार्थ रूप से वर्णन करता हूँ। अज्ञानी नरकपाल नारकी जीवों को दण्ड देकर उन्हें उनके पूर्वकृत सभी पापों का स्मरण कराते हैं। नरकपालों द्वारा मारे जाते हुए वे नैरयिक पुनः महासन्ताप देने वाले (विष्ठा और मूत्र आदि) बीभत्स रूपों से पूर्ण नरक में गिरते हैं। वे वहां (विष्ठा, मूत्र आदि) घिनौने पदार्थों का भक्षण करते हुए चिरकाल तक कर्मों के वशीभूत होकर कृमियों (कीड़ों) के द्वारा काटे जाते हुए रहते हैं। नारकी जीवों के रहने का सारा स्थान सदा गर्म रहता है और वह स्थान उन्हें गाढ बंधन से बद्ध कर्मों के कारण प्राप्त होता है तथा अत्यन्त दुःख देना ही उस स्थान का स्वभाव है। नरकपाल नारकी जीवों के शरीर को बेड़ी आदि में डालकर उनके शरीर को तोड़-मरोड़ कर उनके मस्तक में छिद्र करके उन्हें सन्ताप देते हैं। वे नरकपाल अविवेकी नारकी जीव की नासिका को उस्तरे से काट डालते हैं, उनके ओठ और दोनों कान भी काट लेते हैं और जीभ को एक बित्ताभर बाहर खींचकर उसमें तीखे शूल भोंककर उन्हें सन्ताप देते हैं। उन नैरयिकों के कटे हुए अंगों से सतत खून टपकता रहता है जिसकी पीड़ा से वे विवेकमूढ़ सूखे हुए ताल के पत्तों के समान