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वेदना अध्ययन
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सेडियालिछाणि वा भिडियालिडाणि वा अयागराणि वा तंबागराणि या तज्यागराणि वा सीसागराणि वा रूप्पागराणि वा, सुवन्नागराणि वा हिरण्णागराणि वा, कुंभारागणी वा, भुसागणी वा इट्टयागणी वा कवेल्लुयागणी वा, लोहारंबरीसेइ वा, जंतवाडचुल्ली वा, इंडियलिल्याणि वा सोडियलित्थाणि वा णलागणी वा तिलागणी या, तुसागणीइ वा तत्ताई समज्जोई भूयाई फुल्लाकिंसुय समाणाई उकासहरसाई विणिम्मुयमाणाई जालासहस्साई इंगालसहस्साई पविक्खरमाणाई अंतोअंतो हुहुयमाणाई चिट्ठति ताई पासइ ताई पासिता ताई ओगाहइ, ताई ओगाहित्ता से णं तत्थ उन्हं पि पविणेज्जा, तह पि पविणेज्जा, खुहं पि पविणेज्जा, जरपि पविणेज्जा, दाहंपिपविणेज्जा, णिद्दाएज्जा वा, पयलाएज्जा वा, सई वा, रई वा, धिरं वा, महं वा, उवलभेज्जा, सीए सीयभूयए संकममाणे- संकममाणे सायासोक्खबहुले या वि विहरेज्जा,
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प भवेयारूये सिया ?
उ. णो इणट्ठे समट्ठे गोयमा ! उसिणवेवणिज्जेसु नेरइएस नेरइया एतो अणिट्ठतरियं चैव उसिणवेयणं पच्चणुभवमाणाविहरति ।
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प. सीयवेयणिज्जेसु णं भंते ! णरएसु णेरइया केरिसिय सीयवेयणं पच्चणुभवमाणा विहरति ?
उ. गोयमा ! से जहानामए कम्मारदारए सिया तरुणे जुगवं बलवं जाय सिप्पोवगए एवं महं अयपिंड दगवारसमाणे गहाय ताबिय कोट्ठिय-कोट्ठिय जहन्त्रेणं एगाहं था, दुआहं वा, तियाहं वा, उक्कोसेणं मासं हणेज्जा, से णं तं उसिणं उसिणभूयं अयोमएणं संदंसएणं गहाय असब्भावपट्ठवणाए सीवेयणिज्जे णरएस पविक्खवेज्जा, से तं उम्मिसिय निमिसियंतेरणं पुणरवि पच्चुद्धरिस्सामित्तिकडु पविरायमेव पासेज्जा, पविलीणमेव पासेज्जा, पविद्धत्यमेव पासेज्जा णो चैव णं संचाएइ अविरायं वा अविलीणं वा, अविद्धत्थं वा, पुणरवि पचुद्धरित्तए ।
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सेां से जहाणामए मत्तमायंगे तहेब जाव सोक्क्खबहुले या वि विहरेज्जा ।
एवामेव गोयमा ! असब्भावपट्ट्वणाए सीयवेदणेहिंतो रएहिंतो नेरइए उव्वट्टिए समाणे जाई इमाई इहं माणुसलोए हवति, तंजा
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हिमाणि वा हिमपुंजाणि वा हिमपउलाणि वा, हिमपउलपुंजाणि वा तुसाराणि वा तुसारपुंजाणि वा, हिमकुंडाणि वा, हिमकुंडपुंजाणि वा, सीयाणि वा, ताई पासइ पासिता ताई ओगाइइ ओगाहित्ता से णं तत्थ सीपि पविणेज्जा, तहपि पविणेज्जा, खुपि पविणेज्जा, जरपि पविणेज्जा दाहं पि पविणेज्जा, निहाएज्ज वा
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पयलाएज्ज वा जाव उसिणे उसिणभूए संकसमाणेसंकसमाणे सायासोक्खबहुले या वि विहरेज्जा ।
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मिण्डियों से भरी भट्टियां, लोहा, तांबा, रांगा, सीसा, चांदी, सोना, हिरण्य को गलाने की भट्टियां, कुम्भकार के भट्टे की अग्नि, भूसे की अग्नि, ईंटें पकाने के भट्टे की अग्नि, केवलु पकाने की भट्टे की अग्नि, लोहार के भट्टी की अग्नि इक्षुरस पकाने की भट्टे की अग्नि बड़े-बड़े भाण्डों को पकाने के भट्टों की अग्नि, शराब के भांडों को पकाने के भट्टों की अग्नि, तृण (वांस) की अग्नि, तिल की अग्नि, तुष की अग्नि आदि जो अग्नि से तप्त स्थान है और तपकर अग्नि तुल्य हो गये हैं। जिनसे फूले हुए पलास के फूलों की तरह लाल-लाल हजारों चिनगारियां निकल रही है, हजारों ज्वालाएं निकल रही हैं, हजारों अंगारे बिखर रहे हैं और जो अत्यन्त जाज्वल्यमान है, ऐसे स्थानों को नारक जीव देखता है और देखकर उनमें प्रवेश करता है और प्रवेश करके वह अपनी उष्णता, तृषा, क्षुधा, ज्वर और दाह को दूर कर वहां नींद भी लेता है, आंखें भी मूंदता है, स्मृति रति धृति और चित्त की स्वस्थता प्राप्त करता है, इस प्रकार शीतल और शान्त होकर धीरे-धीरे वहां से निकलता हुआ अत्यन्त साता और सुख का अनुभव करता है। क्या नारकों की ऐसी उष्णवेदना है ?
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गौतम ! यह बात नहीं है, उष्ण वेदना वाले नरकों में नैरयिक इससे भी अधिक अनिष्टतर उष्णवेदना का अनुभव करते हैं।
प्र. भन्ते ! शीतवेदना वाले नरकों में नैरयिक जीव कैसी शीतवेदना का अनुभव करते हैं ?
उ. गौतम ! जैसे कोई लुहार का लड़का जो तरुण, युगवान्, बलवान् यावत् शिल्प में निपुण हो, वह पानी के एक घड़े के बराबर एक बड़े लोहे के पिण्ड को पानी लेकर उसे तपा-तपा कर कूट-कूट कर जघन्य एक दिन, दो दिन, तीन दिन, उत्कृष्ट एक मास पर्यन्त पूर्ववत् सब क्रियाएं करता रहे तथा उस उष्ण और अति उष्ण गोले को लोहे की संडासी से पकड़ कर असत् कल्पना से “मैं पलक झपकते जितने समय में निकाल लूंगा" इस विचार से शीतवेदना वाले नरकों में डाले किन्तु वह पल भर बाद गलता हुआ देखता है, नष्ट होता हुआ देखता है, ध्वस्त होता हुआ देखता है वह उसे अस्फुटित पूर्ववत् अगलित अध्वस्त निकालने में समर्थ नहीं होता है।
मस्त हाथी के समान उसी प्रकार यावत् सुखशान्ति से विचरता है।
इसी प्रकार हे गौतम ! असत् कल्पना से शीतवेदना वाले नारकों से निकला हुआ नैरधिक इस मनुष्यलोक में शीतप्रधान जो स्थान है, यथा
हिम, हिमपुंज, हिम पटल, हिम पटल के पुंज, तुधार, तुषार के पुंज, हिमकुण्ड, हिमकुण्ड के पुंज आदि को देखता है, देखकर उनमें प्रवेश करता है, प्रवेश करके वह अपनी शीतलता, तृषा, भूख, ज्वर, दाह को मिटा कर वहां नींद भी लेता है, आंखें भी बंद कर लेता है यावत् उष्ण होकर अति उष्ण होकर वहां से धीरे-धीरे निकलता हुआ अत्यन्त साता और सुख का अनुभव करता है।