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१२२६ उ. गोयमा ! (१) से जहानामए कम्मारदारए सिया तरुणे
बलवं जुगवं अप्पायंके थिरग्गहत्थे दढपाणिपादपास पिट्ठतरोरू परिणए, लंघण-पवण-जवण-वग्गणपमद्दणसमत्थे तलजमलजुयल बाहू, घणणिचियवलियवट्टखंधे, चम्मेट्ठगदुहणमुट्ठयसमाहयणिचियत्तगत्ते उरस्सबल समण्णागए छेए दक्खे पट्टे कुसले णिउणे मेहावी णिउणसिप्पोवणए एगं महं अयपिंड उदगवारसमाणं गहाय तं तावियताविय-कोट्टिय कोट्टिय उब्भिंदिय उब्भिंदिय चुण्णिय जाव एगाहं वा दुयाहं वा तियाह वा उक्कोसेणं अद्धमासं संहणेज्जा, से णं तं सीयं सीई भूयं अओमएणं संदसएणं गहाय असब्भावपट्ठवणाए उसिणवेयणिज्जेसु णरएसु पक्खिवेज्जा, से णं तं उम्मिसिय णिमिसियंतरेण पुणरवि पच्चुद्धरिस्सामित्ति कट्ट पविरायमेव पासेज्जा, पविलीणमेव पासेज्जा, पविद्धत्थमेव पासेज्जा, णो चेवणं संचाएइ अविरायं वा अविलीणं वा, अविद्धत्थं वा, पुणरवि पच्चुद्धरित्तए।
(२) से जहा वा मत्तमातंगे दिवे कुंजरे सट्ठिहायणे पढमसरयकालसमयंसि वा चरमनिदाघ कालसमयंसि वा उण्हाभिहए तण्हाभिहए दवग्गिजालाभिहए आउरे सुसिए पिवासिए दुब्बले किलंते एक्कं महं पुक्खरिणिं पासेज्जा, चाउक्कोणं समतीर अणुपुव्वसुजायवप्प गंभीरसीयलजलं संछण्णपत्तभिसमुणालं, बहुउप्पलकुमुदणलिण सुभग सोगंधिय पुंडरीय महपुंडरीय सयपत्त-सहस्सपत्त केसर फुल्लोवचियं,
छप्पयपरिभुज्जमाणकमलं, अच्छविमलसलिलपुण्णं परिहत्थभमंत, मच्छ कच्छभं अणेगसउणिगणमिहुण य विरइय स(न्नइय महुरसरनाइयं तं पासइ तं पासित्ता तं ओगाहइ,तं ओगाहित्ता से णं तत्थ उण्हपि पविणेज्जा, तिण्हपि पविणेज्जा, खुहं पि पविणेज्जा, जर पि पविणेज्जा, दाहं पि पविणेज्जा, णिद्दाएज्ज वा पयलाएज्ज वा, सई वा, रई वा, धिई वा, मतिं वा उवलंभेज्जा, सीए सीयभूए संकममाणेसंकममाणे सायासोक्खबहुले या वि विहरेज्जा,
द्रव्यानुयोग-(२) उ. गौतम !(१) जैसे कोई लुहार का लड़का जो तरुण, बलवान्,
युगवान् और रोग रहित हो, जिसके दोनों हाथों का अग्रभाग स्थिर हों, हाथ, पांव, पसलियां, पीठ और जंघाए सुदृढ़ और मजबूत हों,जो लांघने, कूदने, तीव्र गति से चलने, फांदने और कठिन वस्तु को चूर-चूर करने में समर्थ हो, जो सहोत्पन्न दो ताल वृक्ष जैसे सरल लंबे पुष्ट बाहु वाला हो, धन के समान पुष्ट वलयाकार गोल जिसके कंधे हो, जिसके अंग-अंग चमड़े की बेंत मुद्गर तथा मुट्ठियों के आघात से पुष्ट बने हुए हो, जो आन्तरिक उत्साह से युक्त हो, जो अपने शिल्प में चतर. दक्ष, निष्णात, कुशल, निपुण, बुद्धिमान और प्रवीण हो, वह एक पानी के घड़े के समान बड़े लोहे के पिण्ड को एक दिन, दो दिन,तीन दिन यावत उत्कृष्ट पन्द्रह दिन तक तपा-तपाकर कूट-कूटकर चूर-चूर कर पुनः गोला बना कर ठंडा करे। फिर उस ठंडे हुए लोहे के गोले को लोहे की संडासी से पकड़कर असत् कल्पना से "मैं पलक झपकते जितने समय में फिर निकाल लूंगा" इस विचार से उष्ण वेदना वाले नारकों में रख दें। परन्तु वह क्षण भर में ही उसे बिखरता हुआ, मक्खन की तरह पिघलता हुआ और सर्वथा भस्मीभूत होते हुए देखता है। किन्तु वह अस्फुटित अगलित और अविध्वस्त रूप में पुनः निकाल लेने में समर्थ नहीं होता है। अर्थात् वहां की भीषण उष्णता के कारण वह गोला अखंड नहीं रह पाता। (२) जैसे-शरत् काल (आश्विन मास) के प्रारंभ में अथवा ग्रीष्मकाल (ज्येष्ठ मास) के अंत में कोई मदोन्मत्त क्रीड़ाप्रिय साठ वर्ष का हाथी गरमी से पीड़ित होकर तृषा से बाधित होकर, दावाग्नि की ज्वालाओं से झुलसता हुआ आकुल, भूखा प्यासा, दुर्बल और क्लान्त होकर एक बड़ी पुष्करिणी को देखता है, जिसके चार कोने हैं, जो समान किनारे वाली है, जो क्रमशः आगे-आगे गहरी है, जिसका जल अथाह और शीतल है जो कमलपत्र कंद और मृणाल से ढंकी हुई है, जो बहुत से विकसित और पराग युक्त उत्पल कुमुद नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि विविध कमलों से युक्त है, भ्रमर जिसके कमलों का रसपान कर रहे हैं, जो स्वच्छ निर्मल जल से भरी हुई है, जिसमें बहुत से मच्छ और कछुए इधर उधर घूम रहे हैं, अनेक पक्षियों के जोड़ों के चहचहाने के कारण जो मधुर स्वर से शब्दायमान हो रही है, ऐसी पुष्करिणी को देखता है, देखकर उसमें प्रवेश करता है, प्रवेश करके अपनी गरमी को शान्त करता है, तृषा को दूर करता है, भूख को मिटाता है, तापजनित ज्वर को नष्ट करता है और दाह को उपशान्त करता है और निद्रा लेने लगता है आंखे मूंदने लगता है, उसकी स्मृति रति (सुखानुभूति) धृति (धैर्य) तथा मति-मानसिक स्वस्थता लौट आती है, इस प्रकार शीतल और शान्त होकर धीरे-धीरे वहां से निकलता हुआ अत्यन्त साता और सुख का अनुभव करता है। इसी प्रकार हे गौतम ! असतूकल्पना से उष्णवेदनीय नरकों से निकलकर कोई नैरयिक जीव इस मनुष्यलोक में जो गुड़ पकाने की भट्टियां, शराब बनाने की भट्टियां, बकरी की
एवामेव गोयमा ! असब्भावपट्ठवणाए उसिणवेयणिज्जेहिंतो णरएहितो रइए उव्वट्टिए समाणे जाई इमाई मणुस्सलोयंसि भवंति, गोलियालिंछाणि वा,