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( १२२४ ।। ५. चउवीसदंडएसु दुक्खफुसणाइ परूवणं
प. दुक्खी भंते ! दुक्खेणं फुडे, अदुक्खेणं फुडे?
उ. गोयमा ! दुक्खी दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी दुक्खेणं फुडे।
द्रव्यानुयोग-(२) ५. चौबीस दंडकों में दुःख की स्पर्शना आदि का प्ररूपणप्र. भंते ! क्या दुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट होता है या अदुःखी जीव
दुःख से स्पष्ट होता है ? उ. गौतम ! दुःखी जीव दुःख से स्पष्ट होता है, किन्तु अदुःखी
(दुखरहित) जीव दुःख से स्पृष्ट नहीं होता है। प्र. दं.१. भंते ! क्या दुःखी नैरयिक दुःख से स्पृष्ट होता है या
अदुःखी नैरयिक दुःख से स्पृष्ट होता है? उ. गौतम ! दुःखी नैरयिक दुःख से स्पृष्ट होता है किन्तु अदुःखी
नैरयिक दुःख से स्पृष्ट नहीं होता है। दं.२-२४. इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त कहना चाहिए। इसी प्रकार ये पांच दण्डक कहने चाहिए। १. दुःखी दुःख से स्पृष्ट होता है, २. दुःखी दुःख का परिग्रहण करता है, ३. दुःखी दुःख की उदीरणा करता है, ४. दुःखी दुःख का वेदन करता है, ५. दुःखी दुःख की निर्जरा करता है।
प. दं.१.दुक्खी भंते ! नेरइए दुक्खेणंफुडे ? अदुक्खी नेरइए
दुक्खेणं फुडे? उ. गोयमा ! दुक्खी नेरइए दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी नेरइए
दुक्खेणं फुडे। दं.२-२४ एवं जाव वेमाणियाणं। एवं पंच दंडगा नेयव्या। १. दुक्खी दुक्खेणं फुडे, २. दुक्खी दुक्खं परियादियइ, ३. दुक्खी दुक्खं उदीरेइ, ४. दुक्खी दुक्खं वेदेइ, ५. दुक्खी दुक्खं निज्जरेइ।
-विया.स.७, उ.१,सु.१४-१५ ६. एवंभूयअणेवंभूयवेयणा परूवणंप. अन्नउत्थियाणं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेति
"सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता एवभूयं वेयणं वेदेति," से
कहमेयं भंते! उ. गोयमा ! जं णं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्वंति जाव
परूवेंति सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता एवंभूयं वेयणं वेदेति, जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवंमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव एवं परूवेमि, अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एवभूयं वेयणं वेदेति,
अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता अणेवंभूयं वेयणं
वेदेति।
६. एवम्भूत-अनेवम्भूत वेदना का प्ररूपणप्र. भंते ! अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि
"सभी प्राण यावत् सभी सत्व एवंभूत (कर्म बंध के अनुसार)
वेदना वेदते हैं" भंते ! यह ऐसा कैसे? उ. गौतम ! वे अन्यतीर्थिक जो इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा
करते हैं कि"सभी प्राणी यावत् सत्व एवंभूत वेदना वेदते हैं," उनका यह कथन मिथ्या है। गौतम ! मैं यों कहता हूं यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि"कितने ही प्राणी, भूत, जीव और सत्व एवंभूत (कर्म बंध के अनुरूप) वेदना वेदते हैं। कितने ही प्राणी, भूत, जीव और सत्व अनेवंभूत (कर्म बंध से
परिवर्तित रूप में) वेदना वेदते हैं।" प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"कितने ही प्राणी यावत् सत्व एवंभूत वेदना वेदते हैं और
कितने ही प्राणी यावत् सत्व अनेवंभूत वेदना वेदते हैं ?" उ. गौतम ! जिन प्राणी, भूत, जीव और सत्वों ने जिस प्रकार कर्म किये हैं उसी प्रकार वेदना वेदते हैं अतएव वे प्राणी, भूत, जीव
और सत्व तो एवंभूत वेदना वेदते हैं। किन्तु जिन प्राणी, भूत, जीव और सत्वों ने जिस प्रकार कर्म किये हैं, उसी प्रकार वेदना नहीं वेदते हैं वे प्राणी, भूत, जीव
और सत्व अनेवंभूत वेदना वेदते हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"कितने ही प्राणी यावत् सत्व एवम्भूत वेदना वेदते हैं और कितने ही प्राणी यावत् सत्व अनेवंभूत वेदना वेदते हैं।"
प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
'अत्थेगइया पाणा जाव सत्ता एवभूयं वेयणं वेदेति?
अत्थेगइया पाणा जाव सत्ता अणेवंभूयं वेयणं वेदेति?' उ. गोयमा ! जे णं पाणा भूया जीवा सत्ता, जहा कडा कम्मा
तहा वेयणं वेदेति ते णं पाणा भूया जीवा सत्ता एवभूयं वेयणं वेदेति। जे णं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा कम्मा नो तहा वेयण वेदेति तेणं पाणा भूया जीवा सत्ता अणेवंभूयं वेयणं वेदेति। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'अत्थेगइया पाणा जाव सत्ता एवंभूयं वेयणं वेदेति
अत्थेगइया पाणा जाव सत्ता अणेवंभूयं वेयणं वेदेति। १. विया.स.६,उ.१०.सु.११