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३८. णेसज्जिया, ३९. वीरासणिया, ४०. दंडायतिया, ४१. लगंडसाइणो, ४२. आयावगा, ४३. अवाउडा, ४४. अगत्तया, ४५. अकंड्या , ४६. अणिठ्ठहा, ४७. धुयकेस-मंसु-रोम-नहा, ४८. सव्वगायपडिकम्म विप्पमुक्का चिट्ठति। ते णं एएणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता, आबाहसि, उप्पण्णंसि वा, अणुप्पण्णंसि वा बहूई भत्ताई पच्चक्खाइंति पच्चक्खित्ता बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेंति, छेदेत्ता जस्सट्ठाए कीरइ नग्गभावे मुंडभावे अण्हाणगे अदंतवणगे अछत्तए अणोवाहणए भूमिसेज्जा फलगसेज्जा कट्ठसेज्जा केसलोए बंभचेरवासे परघरपवेसे लद्धावलद्धं-माणावमाणणाओ हीलणाओ निंदणाओ खिसणाओ गरहणाओ-तज्जणाओ-तालणाओ, उच्चावया गामकंटगा बावीसं परीसहोवसग्गा अहियासिज्जंति, अहियासिज्झित्ता तमळं आराहेंति,आराहित्ता, चरमेहिं उस्सासनिस्सासेहिं अणंतं अणुत्तरं णिव्वाघायं निरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवलवरणाण-दंसणं समुप्पाडेंति, समुप्पाडित्ता तओ पच्छा सिझंति, बुझंति, मुच्चंति, परिनिव्वायंति, सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति, एगच्चा पुण एगे भयंतारो भवंति।। अवरे पुण पुव्वकम्मावसेसेणं कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति,तं जहामहिड्ढीएसु महज्जुइएसु महापरक्कमेसु महाजसेसु महब्बलेसु महाणुभावेसु महासोक्खेसु, ते णं तत्थ देवा भवंति महिड्ढिया जाव महासुक्खा हारविराइयवच्छा कडग-तुडिय-थंभियभुया अंगय-कुंडलमट्ठगंड तलकण्ण पीढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमाला - मउलि - मउडा कल्लाणगगंध- पवर-वत्थपरिहिया कल्लाणग-पवर-मल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा,
द्रव्यानुयोग-(२) ३८. विशेष प्रकार से बैठने वाले। ३९. वीरासन की मुद्रा में अवस्थित। ४०. पैरों को पसार कर बैठने वाले। ४१. लक्कड़ की तरह टेड़े होकर सोने वाले। ४२. आतापना लेने वाले। ४३. वस्त्र त्याग करने वाले। ४४. शरीर से निर्मोही रहने वाले। ४५. खुजली नहीं करने वाले। ४६. नहीं थूकने वाले। ४७. केश, श्मश्रु, रोम और नखों को न सजाने वाले। ४८. समस्त शरीर को सजाने संवारने से मुक्त रहने वाले होते हैं। वे इस प्रकार से विचरण करते हुए बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन करते हैं। पालन करने में बाधा उत्पन्न होने पर या न होने पर, अनेक दिनों तक भोजन का प्रत्याख्यान करते हैं। प्रत्याख्यान कर अनेक दिनों तक भोजन का त्याग करते हैं। त्याग करके जिस प्रयोजन के लिए नग्न-भाव, मुंडभाव, स्नान का निषेध, दतौन का निषेध, छत्र का निषेध, जूतों का निषेध, भूमि-शय्या, फलकशय्या, काष्ठशय्या, केशलोच, ब्रह्मचर्यवास भिक्षार्थ परघरप्रवेश होने पर आहार प्राप्त में लाभ, अलाभ, मान, अपमान, अवहेलना, निन्दा, भर्त्सना,गर्दा,तर्जना, ताड़ना, नाना प्रकार के ग्राम्यकंटक (चुभने वाले शब्द) आदि बाईस परीषह और उपसर्ग सहे जाते हैं, सहकर साधु धर्म की आराधना करते हैं। आराधना करके अन्तिम उच्छ्वास-निःश्वासों में से अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, पूर्ण, प्रतिपूर्ण, केवलज्ञानदर्शन प्राप्त करते हैं। प्राप्त करके वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं तथा सब दुःखों का अन्त करते हैं। कुछ अनगार एक भव करके मुक्त होते हैं। कुछ दिन पूर्व कर्म के अवशेष रहने पर कालमास में काल करके किन्हीं देवलोकों में देव रूप में उत्पन्न होते हैं, यथावे देवलोक महान् ऋद्धि, महान् धुति, महान् पराक्रम, महान् यश, महान् बल, महान सामर्थ्य और महान् सुख वाले होते हैं। उन देवलोकों में महान् ऋद्धि वाले यावत् महान् सुख वाले देव होते हैं। वे हार से सुशोभित वक्ष स्थल वाले, भुजाओं में कड़े और भुजरक्षक पहनने वाले, बाजूबन्ध, कुंडल, कपोल-आलेखन और कर्णफूल को धारण करने वाले, विचित्र हस्ताभरण वाले, मस्तक पर विचित्र माला और मुकुट धारण करने वाले, कल्याणकारी सुगंधित उत्तम वस्त्र पहनने वाले, कल्याणकारी श्रेष्ठ माला और अनुलेपन धारण करने वाले, प्रभायुक्त शरीर वाले, लंबी वनमालाओं को धारण करने वाले, दिव्य रूप, दिव्य वर्ण, दिव्य गंध, दिव्य स्पर्श, दिव्य संघात, दिव्य संस्थान, दिव्य ऋद्धि, दिव्यधुति, दिव्यप्रभा, दिव्य छाया, दिव्यअर्चा, दिव्य तेज, दिव्य लेश्या से दशों दिशाओं को उद्योतित
और प्रभासित करने वाले, कल्याणकारी गति वाले, कल्याणकारी स्थिति वाले और कल्याणकारी भविष्य वाले होते हैं।
दिव्वेणं रूवेणं, दिव्वेणं वण्णेणं, दिव्वेणं गंधेणं, दिव्वेणं फासेणं, दिव्वेणं संघाएणं, दिव्वेणं संठाणेणं, दिव्वाए इड्ढीए, दिव्वाए जुईए, दिव्वाए पभाए, दिव्वाए छायाए, दिव्वाए अच्चीए, दिव्वेणं तेएणं, दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा, पभासेमाणा, गइकल्लाणा, ठिइकल्लाणा, आगमेस्सभद्दया वि भवंति,