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देवीए रोहिणीए, देवीए देवकीए य आणंदहिययभावणंदणकरा, सोलस-रायवर-सहस्साणुजायमग्गा, सोलस-देवीसहस्स-वर-णयण-हिययदइया, णाणामणि कणग- रयण - मोत्तिय - पवाल -धण-धन्न-संचयरिध्दि-समिद्धकोसा, हय-गय-रह-सहस्ससामी, गामागर-नगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणासम-संबाहसहस्स-थिमिय-णिव्वुय पमुदियजण-विविहसासनिष्फज्जमाण - मेइणि - सर - सरिय - तलाग - सेल - काणणआरामुज्जाण मणाभिराम परिमंडियस्स दाहिणड्ढ वेयड्ढगिरि विभत्तस्स लवणजलहि-परिगयस्स छव्विहकालगुण कामजुत्तस्स अद्धभरहस्स सामिका।
धीर-कित्ति-पुरिसा, ओहबला, अइबला, अनिहया, अपराजिय-सत्तु मद्दण-रिपुसहस्स माण-महणा, साणुक्कोसा, अमच्छरी, अचवला, अचंडा मिय-मंजुल-पलावा, हसिय गंभीर-महुर-भणिया, अब्भुवगयवच्छला सरण्णा लक्षण,
द्रव्यानुयोग-(२) वे देवी-महारानी रोहिणी के तथा महारानी देवकी के हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाले होते हैं। सोलह हजार मुकुट बद्ध राजा उनके मार्ग का अनुगमन करते हैं। वे सोलह हजार सुनयना महारानियों के हृदय के वल्लभ होते हैं। उनके भण्डार विविध प्रकार की मणियों, स्वर्ण, रत्न, मोती, मूंगा, धन और धान्य के संचय रूप ऋद्धि से सदा भरपूर रहते हैं। वे सहस्रों हाथियों, घोड़ों एवं रथों के अधिपति होते हैं। सहस्रों ग्रामों, आकरों, नगरों, खेटों, कर्बटों, मडम्बों, द्रोणमुखों, पट्टनों, आश्रमों, संवाहों सुरक्षा के लिए निर्मित किलों में निवास करने वाले, स्वस्थ, स्थिर, शान्त और प्रमुदित जनों तथा विविध प्रकार के धान्य उपजाने वाली भूमि, बड़े-बड़े सरोवरों, नदियों, छोटे-छोटे तालाबों, पर्वतों, वनों, आरामों, उद्यानों से परिमंडित तथा दक्षिण दिशा की ओर का आधा भाग वैतादय नामक पर्वत के कारण विभक्त और तीन तरफ लवणसमुद्र से घिरे हुए दक्षिणार्ध भरत के स्वामी होते हैं। वह दक्षिणार्ध भरत-बलदेव-वासुदेव के समय में छहों प्रकार के कालों अर्थात् छहों ऋतुओं में होने वाले अत्यन्त सुख से युक्त होता है। . वे (बलदेव और वासुदेव) धैर्यवान् और कीर्तिमान होते हैं।
ओघबली होते हैं, अतिबलशाली होते हैं, उन्हें कोई आहत-पीड़ित नहीं कर सकता है, वे कभी शत्रुओं द्वारा पराजित नहीं होते, अपितु सहनों शत्रुओं का मान-मर्दन करने वाले होते हैं, वे दयालु, मत्सरता से रहित, गुणग्राही, चपलता से रहित, बिना कारण कोप न करने वाले, परिमित और मिष्ट भाषण करने वाले, मुस्कान के साथ गंभीर और मधुर वाणी का प्रयोग करने वाले, अभ्युपगतसमक्ष आए व्यक्ति के प्रति वत्सलता रखने वाले तथा शरणागत की रक्षा करने वाले होते हैं। उनका समस्त शरीर लक्षणों से, चिन्हों से, तिल मसा आदि व्यंजनों से सम्पन्न होता है। मान और उन्मान से प्रमाणोपेत तथा इन्द्रियों एवं अवयवों से प्रतिपूर्ण होने के कारण उनके शरीर के सभी अंगोपांग सुडौल-सुन्दर होते हैं। उनकी आकृति चन्द्रमा के समान सौम्य होती है और वे देखने में अत्यन्त प्रिय एवं मनोहर होते हैं। वे अपराध को सहन नहीं करते अथवा अपने कर्तव्यपालन में प्रमाद नहीं करते। वे प्रचण्ड -उग्र दंड का विधान करने वाले अथवा प्रचण्ड सेना के विस्तार वाले एवं देखने में गंभीर मुद्रा वाले होते हैं। बलदेव की ऊँची ध्वजा ताड़ वृक्ष के चिन्ह से और वासुदेव की ध्वजा गरुड़ के चिन्ह से अंकित होती है। गर्जते हुए अभिमानियों से भी अभिमानी, मौष्टिक और चाणूर नामक पहलवानों के दर्प को जिन्होंने चूर-चूर कर दिया था, रिष्ट नामक सांड का घात करने वाले, केसरी सिंह के मुख को फाड़ने वाले, अभिमानी (कालीय) नाग के दर्प का मथन करने वाले, यमल अर्जुन को नष्ट करने वाले, महाशकुनि और पूतना नामक विद्याधरियों के शत्रु, कंस के मुकुट को तोड़ देने वाले और जरासंध जैसे प्रतापशाली राजा का मान-मर्दन करने वाले थे।
वंजणगुणोववेया,
माणुम्माणपमाण-पडिपुण्ण-सुजाय-सव्वंग-सुदरंगा,
ससि सोमागार कंत पियदसणा,
अमरिसणा
पयंड-डंडप्पयार-गंभीरदरिसणिज्जा,
तालद्ध-उव्विद्ध- गरुलकेऊ,
बलवग-गज्जत-दरिय-दप्पिय-मुट्ठिय-चाणूर-मूरगा, रिट्ठवसभ-घाइणो, केसरिमुहविप्फाडगा, दरिय-नाग- दप्प-मद्दणा, जमलज्जुण भंजगा, महासउणि-पूतणारितु कंसमउड-तोडगा, जरासंध माणमहणा।