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११५६ उ. गोयमा ! तं उट्ठाणेण वि, कम्मेण वि, बलेण वि,
वीरिएण वि, पुरिसक्कारपरक्कमेण वि, अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेइ, णो तं अणुट्ठाणेणं, अकम्मेणं, अबलेणं, अवीरिएणं, अपुरिसक्कारपरक्कमेणं, अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेइ। एवं सइ अस्थि उट्ठाणे इ वा, कम्मे इ वा, बले इ वा,
वीरिए इवा,पुरिसक्कारपरक्कमे इ वा। प. से णूणं भंते ! (कंखामोहणिज्जंकम्म) अप्पणा चेव
उवसामेइ,अप्पणा चेव गरहइ, अप्पणा चेव संवरेइ?
द्रव्यानुयोग-(२) उ. गौतम ! वह अनुदीर्ण-उदीरणा-भविक कर्म की उदीरणा
उत्थान से, कर्म से, बल से, वीर्य से और पुरुषकार-पराक्रम से करता है, (किन्तु) अनुत्थान से, अकर्म से, अबल से, अवीर्य से और अपुरुषकार-पराक्रम से अनुदीर्ण-उदीरणा भविक कर्म की उदीरणा नहीं करता है। अतएव उत्थान है, कर्म है, बल है, वीर्य है और पुरुषकार
पराक्रम है। प्र. भंते ! क्या निश्चय ही जीव स्वयं (कांक्षामोहनीय कर्म का)
उपशम करता है, स्वयं ही गर्दा करता है, और स्वयं ही
संवर करता है? उ. हां, गौतम ! यहां भी उसी प्रकार पूर्ववत् कहना चाहिए। विशेष-अनुदीर्ण का उपशम करता है, शेष तीनों विकल्पों
का निषेध करना चाहिए। प्र. भंते ! यदि जीव अनुदीर्ण कर्म का उपशम करता है,
तो क्या उत्थान से यावत् पुरुषकार-पराक्रम से करता है, अथवा अनुत्थान से यावत् अपुरुषकार-पराक्रम से अनुदीर्ण
कर्म का उपशम करता है? उ. हां, गौतम ! जीव उत्थान से यावत् पुरुषकार-पराक्रम से
उपशम करता है। किन्तु अनुत्थान से यावत् अपुरुषकार-पराक्रम से अनुदीर्ण कर्म का उपशम नहीं करता है। अतएव उत्थान है यावत् पुरुषकार पराक्रम है।
उ. हंता, गोयमा ! एत्थ वितं चेव भाणियव्वं ।
णवर-अणुदिण्णं उवसामेइ, सेसा पडिसेहेयव्वा
तिण्णि। प. जंणं भंते ! अणुदिण्णं उवसामेइ,
तं किं उट्ठाणेण जाव पुरिसक्कारपरक्कमेण वा अणुदिण्णं उवसामेइ उदाहु तं अणुट्ठाणेणं जाव
अपुरिसक्कारपरक्कमेणं अणुदिण्णं उवसामेइ? उ. हंता, गोयमा! तं उठाणेण वि जाव
पुरिसक्कारपरक्कमेण वि।। णो तं अणुट्ठाणेणं जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेणं अणुदिण्णं कम्मं उवसामेइ। एवं सइ अत्थि उट्ठाणे इ वा जाव पुरिसक्कारपरक्कमे इ वा।
-विया. स. १,उ.३,सु. १०-११ १०३. कंखामोहणिज्जकम्मस्स वेयणं णिज्जरण य
प. से णूणं भंते ! (कंखामोहणिज्ज कम्म) अप्पणा चेव
वेदेइ ,अप्पणा चेव गरहइ? उ. गोयमा ! एत्थ वि सच्चेव परिवाडी।
णवरं-उदिण्णं वेएइ, नो अणुदिण्णं वेएइ।
एवं उट्ठाणेण विजाव पुरिसक्कारपरक्कमेण इवा। प. से णूणं भंते ! अप्पणा चेव निज्जरेइ, अप्पणा चेव
गरहइ? उ. गोयमा ! एत्थ वि सच्चेव परिवाडी।
णवर-उदयाणंतरंपच्छाकडं कम्मं निज्जरेइ। एवं उट्ठाणेण वि जाव पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा।
-विया. स.१, उ.३, सु. १२-१३ १०४. चउवीसदंडएसु कंखामोहणिज्जकम्मस्स वेयणं-
निज्जरणं यप. दं. १-११ नेरइया णं भंते ! कंखामोहणिज्जं कम्म
बेति? उ. हंता, गोयमा ! वेदेति। जहा ओहिया जीवा तहा नेरइया
जाव थणियकुमारा। प. दं. १२ पुढविकाइया णं भंते ! कंखामोहणिज्ज कम्म
वेदेति? उ. हंता, गोयमा ! वेदेति।
१०३. कांक्षा मोहनीय कर्म का वेदन और निर्जरण
प्र. भंते ! क्या निश्चय ही जीव स्वयं (कांक्षामोहनीय कर्म) का
वेदन करता है और स्वयं ही गर्दा करता है? उ. गौतम ! यहां भी पूर्वोक्त समस्त परिपाटी समझनी चाहिए। विशेष-उदीर्ण को वेदता है, अनुदीर्ण को नहीं वेदता है।
इसी प्रकार उत्थान से यावत् पुरुषकार पराक्रम से वेदता है। प्र. भंते ! क्या निश्चय ही जीव स्वयं निर्जरा करता है और स्वयं
ही गर्दा करता है? उ. गौतम ! यहां भी पूर्वोक्त समस्त परिपाटी समझनी चाहिए। विशेष-उदयानन्तर पश्चात्कृत कर्म की निर्जरा करता है। इसी प्रकार उत्थान से यावत् पुरुषकारपराक्रम से (निर्जरा
और गर्दा करता है।) १०४. चौबीस दंडकों में कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन और
निर्जरणप्र. दं.१-११. भंते ! क्या नैरयिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म का
वेदन करते हैं ? उ. हां, गौतम ! वेदन करते हैं। जैसे जीवों का कथन किया है
वैसे ही नैरयिकों से स्तनितकुमार पर्यन्त समझ लेना चाहिए। प्र. द.१२. भंते ! क्या पृथ्वीकायिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म
का वेदन करते हैं? उ. हां, गौतम ! वेदन करते हैं।